Bishakha Saxena   (©Bishakha Saxena ✍️)
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Joined 1 March 2020


Joined 1 March 2020
16 JUL AT 22:24

आँखों की शरारत की नरमी हृदय को छू गई,
बेहाल हुआ बाहर का मौसम इतनी फिसल गई।।

शाख पर बैठी तितलियों की फड़फड़ाहट में,
आहिस्ता आहिस्ता उनकी मुस्कान बिखर गई।।

ज़िंदगी की खूबसूरती उनका चुपके से आना,
वापस जाना भी खुशबुओं की बहार खिल गई।।

नगमे जब जीवन के लय पर चलने लगी,
साथ बिताए यादें आसपास खिलखिलाने लगी।।

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3 JUN AT 21:15

ख़्यालो की बारिश में भींगना,
जुनून ए एहसास से भर देता है।।
मन के विश्वाश पर मरहम लगाकर,
खुलकर जीना भी सीखा देता है।।

विचारों से भरा हुआ दिल का राज,
खामोशियों को मिल जाता है।।
जीवन सफ़र भी मुस्कुराने लगता है,
रिश्तों में कशिश खिल जाता है।।

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8 MAY AT 23:54


सुनो ना,
मेरा एक काम कर दो,
मुझे तेरे इश्क़ में गुमनाम कर दो।।
कभी तो मेरे ख़ामोशी को जानो,
बाद में मुझे ख़ुद से अनजान कर दो।।

सुनो ना,
कह ना सकेंगे कभी भी,
तुम ही कहकर सब आसान कर दो।।
मुस्कुरा कर देखो तो कभी तुम,
मेरे संग हर राह का पहचान कर लो।।

सुनो ना,
कहीं किसी रोज़ मिलो उल्फत भरी तन्हाई में,
एक दूसरे को बिन बोले सुबह से शाम कर लो।।
कभी दिल भर जाए मुझसे तो,
नजरें फेर कर मेरा काम तमाम कर दो।।

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8 MAY AT 23:49

खुशबू बाक़ी है तुम्हारी मेरे कमरे में,
सिरहाना पर रखे मखमली तकिया में,
किवाड़ से उतरते, निकलते चौखटों में,
खिड़की पर सिमटा मिट्टी के फूलदान में,
गीली मिट्टी के फ़र्श पर पैरों के छाप में,
तुम्हारी खता है कि यही कही बाक़ी रह गए॥

गंगा घाट पर सीढ़ियों पर बिखरे काइयो में,
पानी के लहरों से उत्पन्न सुरीली आवाज़ में,
पलाश के पेड़ पर लिपटे अनवरत बेल में,
खामोशी से उतरते सूरज के मद्धिम रोशनी में,
सांझ के गहराते अंधियारों के सूनेपन में,
तुम्हारी खता है कि यही तुम बिखरते चले गए॥

पन्नों पर सजाते हुए हर अक्षर-अक्षर में,
शब्दों को लेकर बुनते हुए कविता, ग़ज़ल में,
शायरी की हर कलाम, तुकांत और हर्फो में,
तुम्हारी खता है कि यही बस सिमटे रह गए॥

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8 MAY AT 21:36

कहानी अधूरी हो तो हक़ीक़त भी,
झूठ के बुनियाद से कोसों दूर लगता है।।
ज़माने के सामने कितना भी मुस्कुरा लो,
ज़िन्दगी फिर अजनबी सा लगता है।।

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8 MAY AT 21:33

खाली कप में अब भी तेरे इश्क़ का स्वाद,
ख़ामोशी से मेरे संग गूफ्तगू करता रहता है।।
चाय का मिठास जो मुँह में घुल सा गया है,
तेरे यादों का जखीरा सुलगता रहता है।।

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6 MAY AT 22:30

क्या क्या न हुआ मत पूछो लोगों,
दर्पण में ख़ुद को देखा तो,
उसका अक्स ही दिखता रहा मुझको,
तब भावनाओं का अनूठा उदगार हुआ॥

अनुबंधों के तरह समाया था मुझमें,
सपनों का सुनहरा संसार पाया था,
एहसास की ख़ुशबू से महक उठी थी,
तब सात सुरों का अनुपम यलगार हुआ॥

निश्चल प्यार का कलरव जागा था
एकाग्रता के टूटन का आभास हुआ,
शीतलता प्रदान करती बयार जो चली,
तब मिलन का अतुलनीय व्यवहार हुआ॥

जीवन का माकूल जवाब ढूढते रहे,
अनुराग में निथरी हुई अरुणिमा बिखरी,
मन के चंचलता का जब आगाज़ हुआ,
तब प्रगाढ़ आलिंगन का विचार हुआ॥

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6 MAY AT 22:18

बहुत दिनों के बाद कोई पत्र आया,
मेरे मन मंदिर में अनोखा हर्ष जगाया।।
साँझ सवेरे नाम जिसका जपा करते थे,
उसी प्रभु के द्वार तक जाने का टिकट आया।।

मन के विश्वास पर अप्रतिम भाव जगमगाया,
मानसरोवर जाने का भोले बाबा से बुलावा आया।।
कितने अनकहे अल्फाजों का सफ़र शुरु हुआ,
मन के दीप्त आभा मंडल में बहार छाया।।

किसी ने उस पत्र के माध्यम से टिकट भिजवाया था,
हमसे मिलने के खातिर शिव शम्भू का पत्र आया।।
मन विभोर होकर अलग मस्ती में झूम उठा,
शिव शंकर के धाम जाने का दिन निकट जो आया।।

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2 MAY AT 22:50

मेरे मन के मीत, जो बन गए खुशियों के गीत,
जग तो बैरी बन बैठा है, जितने निर्मम विचार थे॥
बेशुमार ग़म के थाह में, दुनिया मोहताज मुस्कानों की,
तुम भी जाते हुए एक अलविदा तो कह सकते थे॥

जाल बिछाकर दिल तोड़ जाते, उफ्फ भी न करते,
राम नाम का जाप करने वाले भी भस्म रमाये बैठे थे॥
चाहत के ठोस धरातल पर, तुम बिन पेंदी लौटा बन गए,
तुम भी जाते हुए एक अलविदा तो कह सकते थे॥

खिलकर फूल गुलिस्तां में, कितने ख्वाहिशों से बिखर गए,
खुशबू क़ायम रखने के लिए चमन दुनिया जला देते थे॥
फिर नदी किनारे बैठे हुए हम क्यूँ प्यासे रह गए,
तुम भी जाते हुए एक अलविदा तो कह सकते थे॥

कौन-सा लम्हा आखिरी हो जाए किसी का भी,
इसलिए सदियों से यूँ ही मुस्कुराते चलें आए थे॥
हर जगह नफ़रत की आंधियाँ ही चलती है,
तुम भी जाते हुए एक अलविदा तो कह सकते थे॥

मन का तमस कहीं रुक कर और गहरा न हो जाए,
इसलिए उन यादों के पथ पर हमेशा अकेले चलते थे॥
बूँद बूँद का प्यार तो हमने सजाकर रखा था,
तुम भी जाते हुए एक अलविदा तो कह सकते थे॥

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2 MAY AT 17:43

मजदूर है हम
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श्रमिक की व्यथा का किसको होता भान,
श्रमिक शोषित होते नही किसी का ध्यान।।
कंधो पर ढोते-ढोते भार, राष्ट्र निर्माण कर जाते है
नहीं लेता कोई इनका कहीं भी संज्ञान।।

कितनी बार भूखा होता, धरती बनती बिस्तर,
आश्रित होकर भी मेहनत होती पहचान।।
जीवनशैली कष्टकर उन्नति कहीं न होय,
राष्ट्र निर्माण के जनक मिलता न सम्मान।।

मदद इनको भी चाहिए, ताकि जिए खुशहाल,
लाचारी भरी जीवन, जिससे हर कोई अनजान।।
प्यार के दो मीठे बोल इनको मिलना चाहिए,
मेहनत करके यही तो गढ़ते धरा पर नवसोपान।।

शांति की तलाश में दर दर भटकते फिरते,
मजदूर है हम मेहनत द्वारा कर्म का आव्हान।।
हर जटिलता को हँसते हुए झेल जाते है,
परिश्रम के बल पर डटे रहते नहीं बेचते ईमान।।

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