तूं जगत जननी है मां पूर्ण स्त्री का स्वरूप है तूं मां प्रधान तो आज भी समाज में पुरुष ही है मांजो शायद हमेशा रहने वाला है स्त्री मात्र दासी है मांपुरुष उसका मालिक क्यू मां मैं देहरी से आगे नहीं जा सकती क्यू मैं अपने मन से नहीं हंस सकती क्यू मैं गलत पर नहीं बोल सकती मैं तो तेरा ही रूप हूं न मां क्यू ये लोग मुझे नीचा दिखाते है की मैं मात्र स्त्री हूं मुझे किसी भी तरह का कोई अधिकार नहीं क्यू मां सारे पुरुष के ही हक हैं जबकि स्त्री ही इनका अस्तित्व है तो हम क्यों हैं दासी पुरुष समाज की हमसे कोई प्यार से बात नहीं करना चाहता क्यू मां तूं तो सबकी मां है ये समाज हमारे हक तो छोड़ो कदर करना भी नहीं जानता मुझे कदर चाहिए मां मुझे प्यार चाहिए मां मुझे बाहर की दुनियां देखनी है मां आपकी बेटी ।
जल्द ही पीएचडी करने वाली हूं गलत के लिए लड़ने वाली हूं सही के लिए खड़ी रहने वाली हूं सकारात्मक रूप हूं नकारात्मकता से झगड़ने वाली हूं इंसान हूं मानवता जानने वाली हूं फकत बात ये है कितनी भी बड़ी बन जाऊ संवेदनशील इंसान बन जाऊ दूसरों के बारे में कितना ही अच्छा क्यू न सोच लूं मेरा अस्तित्व ही ऐसा है रहना है बस इन गवारों की घटिया सोच के तले दब के।