ऐ ज़िंदगी बस इतनी सी इल्तिज़ा है
आ देख मेरी हालत और बता
तुने दी थी जो मोहल्लत वो
हो गयी है पूरी या अब भी कुछ बचा है
वैसे चाह कोई अब और रही नही
कोई क्षोभ, कोई लोभ भी रहा नही
रिश्ते-नाते भी सब देख लिये
जितना जीना था, जी लिये
अब तक के इस सफ़र में
कितनी बार हंसी हूँ;
कितनी बार रोयी हूँ, अब कुछ भी याद नही
अब कोई सपना भी बचा नहीं
अपना भी कोई अब रहा नही
सब अपने-अपने रस्ते हैं
कुछ एहसास अब तो रिसते हैं
किस बात की अब करुँ दुआ
ले चल अब बहुत हुआ
जो काया तुने दिया था वो भी अब ढ़ल गया
बस आखरी गरज अब शेष रहा
भूल-चूक सब माफ़ हो
और एक सहज ज़िंदगी की सांझ हो...
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