"हां! मैं वैश्या हूं"
रोज जाने कितने ही जिस्मों की प्यास बुझाती हूं,
चंद रुपयों के लिए खुद को बेच आती हूं,
तब जाकर कहीं पेट की भूख मिटा पाती हूं,
हां! मैं वैश्या हूं।।
मर्जी नहीं चलती मेरी, और रोज नोंची जाती हूं,
मेरे भी हैं अरमान बहुत, पर चुपचाप सब सहती जाती हूं,
मेरे बस में होता, तो ये करती ही क्यूं, बस ऐसे दिल को बहलाती हूं,
हां! मैं वैश्या हूं।।
दुतकार देते हैं जो शरीफ दिन के उजाले में मुझे,
रात के अंधेरे में फिर उनको अपनी गली बुलाती हूं,
ऐसी दोगली दुनिया में, मैं अपना काम चलाती हूं,
हां! मैं वेश्या हूं।।
लिप्त हूं अब ऐसे काम में, तो बलात्कारियों को भी कुछ कहना चाहती हूं,
मत नोंचो जिस्म मासूमों के, आओ मेरे पास, मैं सब की हवस मिटाती हूं,
तुम जैसे लोगों के लिए ही तो, मैं ये काम करती जाती हूं,
हां! मैं वैश्या हूं।।
निकलना चाहूं जो मैं इस दलदल से, तो वापस धकेल दी जाती हूं,
चाहूं गर किरण रोशनी की, तो इस काली दुनिया का साया ही पाती हूं,
मेरे बस का कुछ नहीं है यहां, तो बस चलो आज फिर खुद को बेच आती हूं,
हां! मैं वैश्या हूं।।
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