हे आयुष्य जरी नश्वर तरी आसक्त मी
तुझ्या विरहात झालोय विरक्त मी ।
वेदना सोसवेना मज एकाकी जगण्याच्या
म्हणुनी जन्मलो अंगणी तुझ्या होऊन प्राजक्त मी ।।-
रास्ते ख़त्म नहीं होते ख़्वाहिशों के इस सफ़र में
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ज़िंदगी तू बेमतलब सी हर रोज़ लगती हैं
एक पल साज तो दूजे पल सोज लगती हैं
ज़रूरी नहीं के ज़्यादा होना खुशनसिबी हो
अन्धों के शहर में आँखें भी बोझ लगती हैं-
माना के एकतरफ़ा इश्क़ कभी पूरा नहीं होता
वो आधा होता हैं जनाब मगर अधूरा नहीं होता-
मुझे तेरी मोहब्बत से दूर जाना हैं आहिस्ता आहिस्ता
जैसे सूखे पत्ते का पेड़ से गिरना हैं आहिस्ता आहिस्ता
लोग तो बेवजह मनाते हैं ख़ुशी हर एक के जनम क़ी
सच तो ये के उसे हररोज़ मरना हैं आहिस्ता आहिस्ता-
दिल कीं कफ़स से करूँ रिहा फिर लौट आते हैं
क्या यादों के परिंदों का कोई आसमाँ नहीं होता
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अपनी आग़ोश में इस तरह छुपा दे मुझे
बहुत देर तक जला हूँ अब बुझा दे मुझे
ज़िंदगी तो सब को दीं चार दिन की मगर
मेरे हिस्से में क्यों आयी रात बता दे मुझे
सुनाई देता हैं सिर्फ़ सिसकियों का शोर
हवा से नहीं तो आंसुओं से सुला दे मुझे
मिटे गए परवाने कई रोशनी में मेरी
यें भी तो गुनाह हैं जिसकी सजा दे मुझे-
अब के शाम आए तो थोड़ी सी शफ़क़ मांग लेना
रंग बिखर मायूसी के हौसलों का उफ़क मांग लेना
यें ना सोचना की क्या पाया और क्या खोया तुमने
मिले ज़िंदगी जितनी उसे जीने का सबक़ मांग लेना-
सुना के अमन पसंद हैं बहुत तेरे शहर का नवाब
तो चलो फिर पुराने अख़बार उठा के देखते हैं-
जो मिला नहीं उसका हिसाब थीं ज़िंदगी मेरी
ख़ुद ही के ख़्वाबों से इंक़लाब थीं ज़िंदगी मेरी
मौजूद होकर मैं जमाने को दिखाई ना दिया
जैसे की अमावस का महताब थीं ज़िंदगी मेरी
बावजूद रहकर भी दरियाँ में ताउम्र प्यासा रहा
किसी बूँद का बनाया हुबाब थीं ज़िंदगी मेरी
बहुत लिखी कहानियाँ मगर पढ़ीं ना किसी ने
जलने के काम आयी किताब थीं ज़िंदगी मेरी-
वो छीन कर बिनाई ख़्वाब दिखाता मुस्तकबिल के हैं
कहता हैं फ़क़ीर खुद को मगर सारे नक़्श कातिल के हैं-