Bhavna   (Bhavna)
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मेरे अनुभव,
मेरे विचार...!
Joined 4 May 2021


मेरे अनुभव,
मेरे विचार...!
Joined 4 May 2021
6 JUL AT 11:48

एक तेरे वादे पे
ये जीवन रूका हैं,
ऐसा नहीं कि
आखरी नींद
सोना नहीं आता।

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11 MAY AT 16:34

मां का आंचल,
वो दरख़्त है।
जिसे ओढ़ बेटियां ना केवल सुरक्षित महसूस करती है
बल्कि फूलों सी महकने लगतीं हैं।
ना जाने कैसा ऐसा जादू है,
जो हमारे हिस्से आईं हर बैचेनी और तमाम उलझनों
से हमारे मन में उठ रहे बवंडर से
सुकून की छाया कर जाती है...
मां, जब सब कहते हैं कि आपका प्रतिबिम्ब हूं...
तो दौड़कर दर्पण से पूछतीं हूं कि...
बता वास्तविकता क्या है?
तुम तो सब जानते हों...
आखिर आईना जो ठहरे!
जितनी सुन्दरता मां के आंचल की छांव में है,
क्या कभी अपने मन के दर्पण को
इतनी शीतलता का आभास करा पाऊंगी...।

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24 FEB AT 18:03

जानते हो ना अराध्य!
जिनकी हंसी बहुत खूबसूरत होती है...
उनके ग़म भी बड़े कमाल के होते हैं...

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24 FEB AT 17:56

कहीं कोई
एक चोर है...
जो मेरी मुस्कान
चुरा लें गया!
वही आज कहता है,
'तुम्हारी हंसी मुझे
सुकून देती थी।'


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14 FEB AT 12:56

प्रेम ना सही, यादों का असर चाहती हूं।
समंदर से लौटती हर वो लहर चाहती हूं।

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7 JAN AT 18:53

उस लम्हे ने मुझसे जातें जातें बस इतना ही कहा...
समाज तुम्हें अलगाव दें! उससे पहले ही तुम इस समाज से हो जाना अनासक्त...!

यदि अकेलापन हम स्वयं चुनें तो वह हमारे लिए सर्वश्रेष्ठ रूप में निखर कर आता है और यदि वही अकेलापन हमें समाज से एक विरासत के रूप में मिलें तो ये हमारे जीवन की सबसे बड़ी त्रासदी होगी।
जो हमें हमारे ही जीवन के प्रति छलना सिखाएगी...!

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14 NOV 2024 AT 14:01

उसे सिखाना कि पराजित कैसे हुआ जा सकता है,
यदि तुम उसे सिखा सको तो सिखाना कि,
ईर्ष्या से दूर कैसे रहा जा सकता है
तुम करा सको तो उसे पुस्तको के
आश्चर्यलोक की सैर अवश्य कराना,
उसे सिखाना कि पाठशाला में अनुत्तीर्ण होना
अधिक सम्मानजनक है बनिस्बत किसी को
धोखा देने के मेरे पुत्र को ऐसा मनोबल देना कि,
वह भीड़ का अनुसरण न करें।
उसे सिखाना कि दुःख में कैसे हंसा जाता है...
उसे समझाना कि आसूंओं में
कोई शर्म की बात नहीं होती।

{अब्राहम लिंकन द्वारा अपने पुत्र के शिक्षक को संबोधित पत्र का अंश...!}

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29 OCT 2024 AT 7:45

तुम चाहती तो कहीं भी छुप सकतीं थीं!
तुमने सागर ही क्यों चुना??
:
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आराध्य,मैं चाहती तो दुनिया में
कहीं भी छुप सकतीं थीं...
लेकिन मैंने गहराइयों को चुना।
मैंने तुम्हें नहीं, तुम्हारे विशुद्ध प्रेम ने मुझे चुना।

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29 OCT 2024 AT 7:32

.....!
... लेकिन उसे जिम्मेदारी, कर्तव्य, अधिकार या समर्पण ये शब्द मालूम ही नहीं थें।
जानती थी तो केवल मेरा नाम...!
वहीं आरंभ वहीं अंत।
अंततः एक दिन उसे बहुत सारे नियमों और हिदायतों में बांध कर मैं छोड़ आया।
आज भी याद आती है, क्योंकि उस फूल का मेरी बंगिया में कोई स्थान नहीं, सो फिर उसे वन में रोपित कर आया और मुड़कर देखा भी नहीं...।

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17 OCT 2024 AT 10:07

प्रेम, उसे करना
जिसे तुम्हारे मन
का ख्याल हो...
जो तुम्हारे
मन का मान रखें
और मौन को
समझ सकें...
हो सकता है;
तुम्हें कुछ लोग मिलें
जीवन में...
...............
किसी से मिलना नियति है...
मगर साथ नीयत से बनते हैं,
..........खरी नीयत।।

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