खुद की पहली सी छवि खुद में ही ढूंढने लगतीं हैं
लड़कियां कभी कभी खुद को याद करके रोने लगती हैं
मगर जिंदगी तो यही है इतने नियम, कायदे, रोक -टोक
औ कुछ ही पल में अपनी मरी हुई आत्मा का बोझ ढोने लगती हैं
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Surwan Mishrapur
Suwansa Pratapgarh (U.P.)
कवयित्री
हर कोई महज़ हाल जानना चाहता है आपका
मगर समझना आपको किसी ने नहीं है
सब को सब कुछ फ़क़त अपना नज़र आता है
औ उसमें आप कहीं भी नहीं हैं
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ख़ामोश शिथिल पड़े मन में कितनी बातें इकट्ठी हो गई
चीख़ते इस सन्नाटे के जीवन में कितनी रातें इकट्ठी हो गई
इन आंसुओं को किसी की उंगलियां नसीब नहीं हुई
नज़दीक लगती थी जो गलियां वो गलियां करीब नहीं हुई
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जिसको दूसरे के दर्द से दर्द नहीं होता
वह मर्द नहीं मुर्दा होता है....
आचार्य प्रशांत-
किसी भी व्यक्ति पर एकात्म श्रद्धा ग़लत है चाहे वे अपने माता-पिता ही क्यों न हो वे पहले मनुष्य है, उनका अपना चरित्र है इस चरित्र को देखने के लिए आवश्यक निर्मल तटस्थ भाव चाहिए
मुक्तिबोध-
आपके खिलाफ चाहे किसी के कान भरे जाए
चाहे आपकी बुराई की जाए आप बस बेफर्क सा रहो
जो वाकई अपने होंगे वो आपमें हजार कमियों के बावजूद आपकी बुराई
न ही सुनेंगे न ही करेंगे-
प्रकृति औ स्त्री पर
जितना अधिक लिखा गया है, पढ़ा गया है
उतना ही कम समझा गया है-
शायद सामान्य जीवन में कविताएं बहुत कम ही जन्म लेती हैं कविताएं अत्यधिक सुख -दुःख या फिर क्रांति और विरोध की स्थिति में ही जन्म लेती हैं शायद इसलिए किसी खास मानसिक, शारीरिक या सामाजिक परिस्थिति में ही कवि का जन्म होता है। ऐसा लगता है सब कुछ सामान्य होने के बाद की स्थिति में कवि अगर कविता लिखे भी तो कविता निबंध का रूप लेने लगती है। शायद इसीलिए कहते हैं कि कविता बनाई नहीं जाती स्वत: ही बन जाती है, महज़ तुकबंदी या जटिल शब्दों को पिरोकर की गई तुकबंदी कविता नहीं हो सकती ।
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लोकतंत्र के मंदिर में अब नेता कुश्तियां खेलते हैं
मेयर पद के लिए सब अपनी-अपनी कुर्सियां ठेलते हैं
हल्ला- गुल्ला,दंगा -फसाद सब सदन में करने लगे हैं
जब जनता करे दंगा फसाद तो उन्हें क्यों डंडे से रेलते हैं
कायदे से इन बेलगाम नेताओं पर भी डंडे चलने चाहिए
इन दंगेबाजो का चुनाव वैकेंसी की भांति हर साल टलने चाहिए
गिराकर जनता पर महंगाई, बेरोजगारी, भुखमरी की गाज
धर्म -जाति के दंगे में कभी इनके भी हाथ जलने चाहिए-