#वकीलकीकलमसे…
वजूद बनाए रखना है गर,
खुद को पूरा फ़ना कर दो,
सिद्दत से कुछ पाना है गर,
निश्छल हो अजाँ कर दो।
दुनिया के दस्तूर को समझो,
जफ़र से अपनी हैरां कर दो।
हुकूमत बनाए रखना है गर,
दिलों में सबके, निशां कर दो।
~ भरत ©️✍️ #वकीलआपका-
ज़िंदगी जब “वकील” हो जाए।। 😉😉
#वकीलकीकलमसे #अपनेअल्फ़ाज़
ज़िंदगी के इस सफ़र का लुत्फ़ कुछ यूँ लीजिए,
चार दिन की ज़िंदगानी, खुल के बस जी लीजिए,
कुछ ना तेरा कुछ ना मेरा, सब यही रह जाएगा,
कर्तव्य पथ पर जो मिले, आग़ोश में भर लीजिए।।
~ भरत ✍️-
वकीलकीकलमसे…
उम्मीदों पर ज़िन्दा रहना आख़िर, कब तक होता है,
छोटी बड़ी ख़्वाहिशे दफ़नाना आख़िर कब तक होता है,
दहलीज़ मना करने पर लाँघना, जुर्रत का काम हैं,
तुम्हारे मुताबिक़ नज़र आना आख़िर, कब तक होता है।
~ भरत #वकीलआपका ©️-
#वकील की कलम से…
मुझे कभी वो बहुत क़रीब से मिला,
कभी फ़ासले बेहिसाब रख मिला,
उसका भी अपना एक रवैया रहा,
मैं जब भी मिला गले लगा के मिला।।
- भरत ©️-
#वकीलकीकलमसे। #अपनेअल्फ़ाज़
दुआ से काम चल जाए, दवा की क्या ज़रूरत है,
दिलों से बैर मिट जाए, सजा की क्या ज़रूरत है,
फ़ितरतें नेक हो जाएँ, अजाँ की क्या ज़रूरत है,
अपना बना कलम सर कर,साज़िशो की क्या ज़रूरत है!
~भरत #वकीलआपका ©️-
वकील की कलम से... (वकीलसाबकहिन) स्वरचित पंक्तिया
वो पैंतरे तुम्हारे ग़ज़ब के थे , वो चाल तुम्हारी ग़ज़ब की थी,
तुम शतरंजे वज़ीर जो थी, मैं महज़ ज़रा सा प्यादा था,
तुम जिधर चली ,सब गिरे पड़े , इस मंजर की शौक़ीन जो थी,
तुम सजीं तो सोचा मै देखूँ, अपने लफ़्ज़ों में मैं लिख दूँ,
पर लिखने वाले कलम कई थे, तुम सबकी तक़दीर जो थीं।।
हर बार तो तुमने यही कहा , मै तुमसे मोहब्बत करती हूँ,
हर बार का वो पल ना भूला, जब कहा मोहब्बत करती हूँ,
तुम कहती रही मोहब्बतें पर, मैं शब्द मोहब्बत सुनता रहा,
लम्बी फ़ेहरिस्त मोहब्बत की, मेरा नम्बर कुछ पता ना था।।
तुम ज़िन्दा रहो, मैं ज़िंदा था, जो मुझमें थी तेरी जान बसी ,
तुम सबको दिलासा देती रही, तुझ में ही , मेरी जान बसी,
साँसे उधार लेकर तुमसे, इस दिल को गिरवी रखा था,
व्यापार था तेरा बहुत बड़ा , दिल कईयों ने गिरवी रखा था,
लोगों ने कहा , कहावतें कही, मोहब्बत बड़ी बुरी है बला,
मैंने सब था नकार दिया , जो सब था ख़िलाफ़ मोहब्बत के।।
देखा तुम्हारी नज़रों से, मोहब्बत था क्षणिक सा खेल प्रिये,
हैं कई पैमाने मोहब्बत के, है अलग अलग से मापदंड,
सबकी अपनी इक पोथी है, सबका अपना ही दर्शन है,
हर एक का अपना खाँचा है, उसमें फ़िट बैठो तो ठीक प्रिये ,
नही रास्ता छोड़ो, आगे बढ़ो, पीछे थी लम्बी लाइन प्रिये।।
सोचा था मै नज़ीर बनूँगा, आशिक़ी का वज़ीर बनूँगा,
लैला मँजनू हीर ओ रांझा , ऐसी कुछ मिशाल बनूँगा,
चाँदनी थी वो चार दिनो क़ी , काली रात वो कर गई थी,
घर से , दिल से, अमीर ही था मै, हर ओर कंगाल वो कर गई थी।।
वो पैंतरे तुम्हारे ग़ज़ब के थे, वो चाल तुमारी...........
~भरत #वकीलआपका ©️
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#वकीलकीकलमसे #स्वविचार
अपने कुछ मसलें, अपने तक ही रहने दो,
मसला उठ खड़ा हो तो, अदना वाह करता है।
~भरत #वकीलआपका ©️-
#वकीलकीकलमसे #स्वरचित
(एक कोशिश ,जीवन को चंद पंक्तियों में पिरोने की)
ये नक़ाब की दुनिया है , नाटकों क़ी बस्ती है,
हर ख़ुशी के पर्दे में , पीर ही सिसकती है,
सम्हल कर चलिए !ये दुनिया है, पीठ पीछे हंसती है।
हाथ भी बढ़ाते है, बंदगी भी करते है,
गले भी लगाते है, ठहाके भी लगाते साथ,
पर पीठ पीछे,पलटते ही, छूरा घोप जाते है।
क्यूँ ये हाहाकार है, मरे ये संस्कार है,
मनुष्य ही मनुष्य का ,क्यू कर रहा शिकार है।
आप आप ही चरें, कैसे ये विचार है,
क्षणिक से दिखावे पर, ये दिल क्यूँ निसार है,
प्रवृत्तियाँ विकृत सी है, वैचारिक क्लेश है,
अपनी अपनी ढपली ,अपना राग, द्वेष है,
तामसिक आग़ोश है, कहा किसी को होश हैं,
मस्तिष्क शून्य है पड़े, आपस में है लड़ रहे,
कभी तो विचार कर, सोच को अपार कर,
मृत्यु को तू सोच कर , वैमनस्य त्याग कर ,
मनुष्यता का दीप ले , इस धरा को तार दे,
नक़ाब को हटा के यूँ , नाटक को खतम कर अब,
चार दिन की ज़िन्दगी, मुस्कुरा के जी तू अब।
कुछ ना साथ लाया था, ना साथ कुछ जा पाएगा,
तेरे मेरे कर्म ही, संसार गुन गुनाएगा।
तेरे मेरे कर्म ही.......
~भरत #वकीलआपका ©️
नोट- शुरुआती दो पंक्तियाँ किसी अन्य कवि की है।-
#वकीलकीकलमसे
तुम्हारी आँखो की गहराइयो का समंदर से ताल्लुक़ है क्या,
डूब जाने बाद कोई बच पाया है क्या,
ऐसे देखा जो तुमने, जिसे यूँ ज़ुल्फ़ें गिरा के,
इसके बाद कोई अपना, वजूद बचा पाया है क्या।।
~भरत #वकीलआपका-
#वकीलकीकलमसे…
दुनिया से क्या हिसाब किताब करते हो,
क्यूँ ख़ामख़्वाह अपने सब जज़्बात कहते हो,
फ़क़ीरी से अमीरी तक का सफ़र तय करने में,
मियाँ, सिफ़र से क्यूँ नही आगाज करते हो।।
~ भरत #वकीलआपका ©️-