भारद्वाज दिलीप   (आपकी पंक्तियां)
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हिंदी आत्मा की भाषा है
Joined 30 March 2018


हिंदी आत्मा की भाषा है
Joined 30 March 2018

तुम कहां हो
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यह फरवरी का एक दिन है
अमुमन बरसात के नही होते ये दिन।

लेकिन फिर वही फरवरी,
वो ही आज का दिन भी,
वही बरसात से शुरू हुआ।
एक टपक
फिर टपक, टपक
कब बूंद में
जो बढकर बौछार
और फिर एक धार में
बदल गई सुबह में ही।
शाम होंने को है अब
मैं इसे भावनाओं की बाढ का दिन घोषित करता हूं।

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प्रेम
अभी बकाया कई घूँटों में
जो रुह में है !

तुम दुनिया को देखो, सुनो, दौड़ो
उसके लिए
मेरी आँखों में भले ही न देखो!

क्योंकि संदेह की कोई परिभाषा
प्रेम भाषा में नही लिखी जाती है!
•भारद्वाज दिलीप

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शायद/

"मृत्यु
के आलिंगन
के पश्चात ही आप
अपनी आत्मा को चुम सकते हो।"

और ध्यान योग में
आप पहले अपनी आत्मा को चुमते है
पश्चात उसके आप मुक्ति का आलिंगन करते हैं।

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ख्याल एक आदत बना है।
इस ख्याल में मैं तुम्हारे साथ हूं।
मैं अब साथ वाले कमरे में रहता हूं
रोज सुबह जागते ही तुम्हें सोते हुए देख कर
निकल जाता हूं मार्निंग वॉक पर...जैसे धुप रोज देखती
फूलों को कभी नदियों को,पहाड़ पर पेड़ों को
देख कर निकल जाती हैं क्षितिज पर।
सुबह शाम आते जाते हम मुस्कराते हैं कुछ रुककर आंखों से बतियाते हैं इक दुजे के कुछ दुख,कुछ एक खुशियां तुम को कई बार सुरज सा, व्यस्त देखते हैं कभी कभी सुबह में।
तब मन होता है कि अब यह ख्याल यही रुक जाएं। तुम थक गई हो।
आज ‌का जो ख्याल है यह हकीकत से ज्यादा
खुबसूरत हो है यह अनोखा भी,अनदेखा ही
कल के दिन की जिम्मेदारी और अपनी भागीदारी ने तुम्हें बहुत थका दिया है।
अभी तक सोयी हो आज की सुबह
मैं लौट आया हूं घूम कर ..
तुम्हारे कमरे की ओर देखता रुक जाता हूं।
और तुमसे कहे बग़ैर अपनी रसोईघर से बना लाता हूं तुम्हारे लिए भी एक कॉफी...
और रख आता हूं तुम्हारे सिरहाने की डेस्क पर।
फिर आ अपनी रसोईघर में गिराता हूं
कुछ बर्तन.....और झांकता हूं बार बार तुम्हारे कमरें में, मैं देखना चाहता हूं आज जागते,
चौंकते, कॉफी मग को उठा कर इधर उधर देखते।मैं यह सब देखना चाहता हूं अपनें ख्याल में ही हर दम तुम्हें रोज कॉफी का घुट भरते,अपने एक हाथ से वालों को सम्हालते
और मुस्कराते।

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मैं भूल जाता हूं
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यह तुम्हारे बारे में नहीं है वसंत यह प्रेम के लिए है
हां मैं भूल जाता हूं कि किस स्वरुप में है मेरे अतंस तक।

एक विश्वास में
अपने सिर्फ साथ के लिए या जीवन की जिज्ञासा को तलाशते।
आगे बढ़ने के लिए और आगे.... या निकल जाने के लिए
मैं और तुम साथ हैं, हमेशा हमेशा के लिए
मैं अपनी मुक्ति तक तुमसे भी प्रेम के लिए प्रतिबद्ध हूं।
हमेशा तुम्हारे बारे में क्यों?
हां अब फिर मैं प्रेम के साथ हूं,
तुम्हें साथ लिए।
मैं तुम्हें माफ करता हूं लगाव दुःख देता है ना,लेकिन लगाव ठहरता भी है
अपनत्व में, यही ही सच है
तुमने रुप भी बदले हैं
आज तुम वसंत हो और मैं प्रेम हूं।

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हर इक पल जा रहा दूर मुझसे रोज,
मैं हूं कि मुड़-मुड़ कर तुम्हें देख रहा।

#B_Dilip

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दर्द पर
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पूरव से आती
ठंडी हवाएं और बादल

देह में कमजोर,
दुखती जगह तलाश करती हैं

फिर दर्द पर और चोट करती है।

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क्यों चुप हैं वो ?
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उसकी चुप्पी
एक खाली
सवाल नहीं है
वह है
उसकी चुप्पियों के हजारों
अनसुलझे ख्यालों से
भरे हुए जबावों का दवाब।

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तुम ठीक हो ना
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याद है तुम्हें
जब उस ‌दिन तुम नहीं थे
मेरे पास बैठे
आती शाम में धीरे से
बहती हवा के साथ।
क्या ..कह रहा था तब मैं,
हां याद आया
'तुम ठीक हो'
शायद वो सुना नहीं था तब तुमने
सच कहूं तो मैं नहीं जान पाया था
तुम से बात करते-करते
तुम कैसी हो?
तुमने तो वो सुना ही नहीं।
पर मैं जब जान पाया
तुमने देर रात फ़ोन कर मुझे कहा था‌ उस दिन।
"क्या कह रहे थे, तुम वो दोबारा कहो"
उस रात के बाद मैंने तय किया हमेशा के लिऐ
कहना कि "तुम ठीक हो"

तुम ठीक हो ना ?

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था यह इत्तेफाक अगर आसान बहोत,
अब वस्ल ए इंतजार इतना सताता क्यूं है।
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