कभी देखा है तुमने
उस चातक को
समझा है उसके प्रेम को
कितना कठिन है न
सावन में भी प्यासा रह जाना
पीहू पीहू की रट करना
एक बूंद स्वाति की
पाने के खातिर
जीवन तक को दांव
पर धर देना
फिर वो नक्षत्र की मर्ज़ी
स्वाति की बूंद दे या न दे
तुम भी नक्षत्र
की तरह ही तो हो
तुम्हारी मर्ज़ी मुझे
प्रेम दो या न दो।-
काश मैं मादा मच्छर होती
उंगली उनकी रोज़ काटती
जिस उंगली पे मुझे नचाते
बैठ उसे फिर वो खुजाते
चैन थोड़ा सा फिर मैं पाती
काश मैं मादा मच्छर होती
चुपके से उनके गाल पे बैठती
और उनको खूब चूमती
जब मारने को हाथ उठाते
उड़कर मैं भाग जाती
गुनगुन गाकर सारी रात जगाती
काश मैं मादा मच्छर होती
सारे जतन वो कर डालते
पार नहीं पर मुझसे पाते
जैसे चैन नहीं मुझे प्रीत में
मैं भी उनकी नींद उड़ाती
काश मैं मादा मच्छर होती।-
काश मैं मादा मच्छर होती
उंगली उनकी रोज़ काटती
जिस उंगली पे मुझे नचाते
बैठ उसे फिर वो खुजाते
चैन थोड़ा सा फिर मैं पाती
काश मैं मादा मच्छर होती
चुपके से उनके गाल पे बैठती
और उनको खूब चूमती
जब मारने को हाथ उठाते
उड़कर मैं भाग जाती
गुनगुन गाकर सारी रात जगाती
काश मैं मादा मच्छर होती
सारे जतन वो कर डालते
पार नहीं पर मुझसे पाते
जैसे चैन नहीं मुझे प्रीत में
मैं भी उनकी नींद उड़ाती
काश मैं मादा मच्छर होती।-
कौन यहां दूर है
कौन किस से अलग है
वो गगन दूर धरा से
या वो धरा
गगन से अलग है
वो समा रही है धरती
आलिंगन में गगन की
या कि छाया है गगन
धरा के वजूद पे
ये लालिमा जो छाई है
क्षितिज के रेख पे
क्या शर्म से लाल हुए
धरा के कपोल है
या कि गगन का
छाया प्रेमराग है
मिलन धरा का
अंबर से
क्षितिज पे जो हो रहा
उसी से बन गई
सुरमयी ये शाम है।-
"सारी जद्दोजहद जिंदा रहने की है साहिब
मरने को तो सांसों का रुकना काफी है"-
जब प्यासी धरती पर बादल झूमकर बरसता है
जब मन थोड़ा चंचल हो नई शरारत करता है
जब दूर कहीं कोई पपीहा पीहू का शोर करता है
मीत मेरे तुमको तब मन याद बहुत ही करता है
जब मीरा की कोई साखी मंदिर में सुनाई पड़ती है
जब राधा की पीड़ व्यथा कविता कोई गढ़ती है
जब विरह का कोई गीत कानों को सुनाई पड़ता है
मीत मेरे तुमको तब मन याद बहुत ही करता है
जब कोई पगली लड़की कुछ ओर पागल होती है
खुद हंसती खुद रोती खुद से ही बातें करती है
जब उसकी पीड़ व्यथा प्रेमी अनसुना करता है
मीत मेरे तुमको तब मन याद बहुत ही करता है-
कोई दिलकश नज़ारा दिल को मेरे अब नहीं भाता
कोई भी हो सहारा दिल को मेरे रास नहीं आता
खिले हों लाख दुनियां में गुलाबों के हसीं गुलशन
तुम्हारे बिन कोई चेहरा मेरे दिल को नहीं भाता-
तुम में ही बसर कर
तुम में ही खत्म हो जाना
यही नीयती है मेरी
तुम से अलग कुछ नहीं
न मैं, न मेरे सपने
और न मेरा प्रेम
कभी कभी लगता है
मेरे अस्तित्व में
केवल तुम हो
मैं केवल एक ही
रंग में रंगी हुई हूं
तुम्हारे रंग में
तुमसे अलग मेरा
कोई रंग नहीं
बेरंग हूं मैं-
कभी कभी बस यूं ही
जी चाहता है
पहाड़ की उस ऊंचाई
पर बैठने का
जहां से दिख सके
नीचे का धरातल
और कभी जी चाहता है
खो जाने का
किसी घने वन में
जहां केवल मैं रहूं
और मेरा एकाकीपन
कभी सहसा ही जी चाहता है
किसी नदी किनारे बैठ
एक-एक कर कई कंकड़
नदी के शांत जल में फेंकने का
ताकि नदी की अस्थिरता
मन में स्थिरता ला सके
किंतु इन सबसे अधिक
जी चाहता है
तुम्हारे गले लगने का
ताकि मेरे हृदय का
एकाकीपन दूर हो सके-
कभी सुनी है खामोशी
कितना शोर करती है ये
बंद मन के तहखानों को
अक्सर खोल देती है ये
कभी परीचय देती है
खुद से खुद का ही
कभी भीड़ में अपनों की
पहचान देती है ये
कभी योगी कर देती
कभी कर देती शमशान सी
कभी दर्पण बन
निजदोष दिखाती
कभी करती ये कोहराम सी
हुआ करो खामोश अक्सर
खामोशी होती बड़े काम की-