हम प्यासों की सुनता
ना गुज़ारिश भी कोई-
ये आंसू , शराबें, ये सिगरेटों के धुएँ...
मोहब्बत तू कितनी कमीनी चीज है...
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मैं एक नए शायर की अधूरी, अनसुनी ग़ज़ल सा हूं.....
अपने लफ़्ज़ों में मुझे पढ़कर मुकम्मल कर दोगे तुम....
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तुम्हारे सिवा कुछ सोचूँ भी तो कैसे...
इन बढ़ते कदमों को रोकूं भी तो कैसे...
ख्वाहिश है तेरी बाहों में गुजरे हर शाम..
नादां हसरतों का गला घोटूं भी तो कैसे..-
उजाला धुएं और अंधेरे में बदल रहा है...
घर के चिराग़ से ही मेरा घर जल रहा है...
धधकता है आँगन, सुलग रहा है हर कोना...
छत से उदासी तो दीवारों से खून निकल रहा..-
फिर से जीने की एक वज़ह दे दे...
तू अपने दिल मे थोड़ी जगह दे दे...
तू आसमाँ है तेरा क्या घट जाएगा..
एक आवारा को तू गर पनाह दे दे...-
सोचता हूँ ये उन दिनों क्या बन गया था मैं...
उसकी प्यास देखकर दरिया बन गया था मैं...
बाग से जीत लाया था गुलाब एक शाम...
कांटों की नजर में बहुत बुरा बन गया था मैं...
उस एक पत्थर के लिए कितने दिल तोड़े मैंने...
हर रिश्ते हर ताल्लुक़ में बेवफ़ा बन गया था मैं...
मयखाना जैसे घर मेरा, घर जैसे मयखाना कोई..
बदन से शराब की महक, नशा बन गया था मैं....-
अब बस बर्बाद कर दो ना तुम....
जिस्म को राख कर दो ना तुम....
बेड़ियां गला दबा रही हैं अब...
मुझको आज़ाद कर दो ना तुम....
रोशनी चुभती है आँखों में...
सब स्याह रात कर दो ना तुम...
कत्ल ये सबको खुदकुशी लगे...
कुछ ऐसे हालात कर दो ना तुम....-
हम हारे हुए लोगों के पास हर मर्ज़ की दवाएँ हैं....
हमारे कासे में शराब है कुछ शेर हैं और दुआएँ हैं.....-
अजल से शौक था वफा का...
तभी तो तन्हा हो गया हूँ मैं...
मोहब्बतों के सिले ऐसे मिले...
बहुत ही बुरा हो गया हूँ मैं...
अकेले में मुस्कराता हूँ सोचकर..
ये क्या से क्या हो गया हूँ मैं....
ना मंज़िल है ना है हमसफ़र कोई...
बिल्कुल आवारा हो गया हूँ मैं...-