होश के जब बेख़ुदी से मिले,
तुझसे मिले के अपनी ख़ुशी से मिले...
नज़ारा-ए-तबस्सूम-ए-यार माज़ अल्लाह,
ख़ूबसूरती भी किस ख़ूबसूरती से मिले...-
Jamia
वक़्त रफता-रफता गुज़र गया,
दिल भी बहरहाल बहल गया...
ये मौजिज़ा भी है अजब मौजिज़ा,
किसी को पा लिया तो कोई बदल गया...-
किस गफलत मे उम्र गुज़र गई,
उसकी दी मोहलत मे उम्र गुज़र गई...
मुझको ये गुमान रहा मुद्दतों के,
खैर! तेरी मुहब्बत मे उम्र गुज़र गई...-
गर बात खुल जाए तो कुछ ईशारा हो,
आदमी इस किनारे हो के उस किनारा हो...
है ये मिरी आगही के ए ज़माने वालों,
कैद-ए-दुनिया मे आप अपना सहारा हो...
होतीं हैं उन्ही के मुकरने की उम्मीदें ज़्यादा,
के जिनको बड़ी हसरतों से पुकारा हो...
दे मुझको बादा-ओ-जाम दे साकी,
के किसी सूरत तो रात का गुज़ारा हो...
फिर उन्ही फासलों मे बसर है 'आज़म',
फिर उन्ही फासलों का सहारा हो...
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एक गुज़र है दिल के तहखाने तक,
बङा लम्बा सफर है मयखाने तक...
कितना हसीन है फूलों का सफर भी,
खिलने तक बिखरने तक मुरझाने तक...-
क्या लहजा हो कैसी ज़बान इख़्तियार करे,
उससे किस अंदाज में कोई इज़हार करे...
नफरत बढ़ चली है अब दुनिया में,
हर किसी से कह दो के प्यार करे...
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हिज्र भी विसाल भी
ये मुहब्बत के सवाल भी
तेरी आरज़ू थी गए बरस
तिरी आरज़ू है इस साल भी-
बस्तियां उजाड दी गईं हम-शनास के हाथ,
कितने मजबूर हैं हम अपनी हिरास के हाथ...-
सूद-ओ-ज़ियाँ से आगे का मसअला है मुहब्बत,
वस्ल-ओ-फिराक़ के कहीं दरमियान है मुहब्बत...
मुझको लाजवाब कर जाती है तबस्सुम उसकी,
ये तुम हो के मेरी जान है मुहब्बत...-
घर में चीज़ें बढ़ रही हैं ज़िंदगी कम हो रही है
धीरे धीरे घर की अपनी रौशनी कम हो रही है
शहर के बाज़ार की रौनक़ में दिल बुझने लगे हैं
ख़ूब ख़ुश होने की ख़्वाहिश में ख़ुशी कम हो रही है
अब किसी को भी छुओ लगता है पहले से छुआ सा
वो जो थी पहले-पहल की सनसनी कम हो रही है
तय-शुदा लफ़्ज़ों में करते हैं हम इज़हार-ए-मोहब्बत
अब तो पहले इश्क़ में भी अन-कही कम हो रही है
ले गया ये शहर उस को मेरे पहलू से उठा कर
मुझ को लगता है मिरी दीवानगी कम हो रही है
हुस्न का बाज़ार आना जाना भी कुछ बढ़ रहा है
कुछ मिरी आँखों की भी पाकीज़गी कम हो रही है
वक़्त डंडी मारता है तोलने में मेरा हिस्सा
दिन भी छोटे पड़ रहे हैं रात भी कम हो रही है
शहर की कोशिश कि ख़ुद को और पेचीदा बना ले
मेरी ये तशवीश मेरी सादगी कम हो रही है
साहिलों की बस्तियाँ ये देख कर ख़ामोश क्यूँ हैं
बस्तियों के फैलने से ही नदी कम हो रही है
शाम आते ही तुम्हें रहती है घर जाने की जल्दी
'फ़रहत-एहसास' इन दिनों आवारगी कम हो रही है-