नहीं रही घर आगमन की आस मुझे
प्यारा लगने लगा ये वनवास मुझे
मोह खत्म हुआ अब रिश्तों की डोर का
राह दिखा रहा बुद्ध का संन्यास मुझे
समाधि में वैभव की चाह कहां
नहीं बुरा लगता मेरा उपहास मुझे
किसी लम्स में अब अना कैसी
शांत कर देता है ईश का आभास मुझे-
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कुदरत बदल सकती है मगर फितरत नहीं बदलती
आईने में देखते रहने से अब ये सीरत नहीं बदलती
बुजुर्गों ने संभलने की दी थी बहुत पहले हिदायत
वक्त बदला पर अब ये कैफियत नहीं बदलती
घर के लिए शहर छोड़ दिया हमने मगर
ज़िंदगी की कमाई से अब ये हैसियत नहीं बदलती
हजारों कसमें उनकी हजार वादे हमारे
कितना चाहा अब ये शख्सियत नहीं बदलती
बदलता होगा युग बदल जाती होगी सियासत_रवायत
महज़ चुनाव से अब ये हुकूमत नहीं बदलती-
वही दुश्मन, वही दोस्त, वही रकीब मेरे
न पूछ उस फेहरिस्त से, कौन करीब मेरे
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वो ख़्वाब अब हमारे दर नहीं आता
अरसा बीत गया घर नहीं आता
देखें हैं राहों में हमराह की हम राह मगर
घड़ी तकते रहने से वक्त गुजर नहीं जाता
हर मुसाफ़िर में देख लेते हैं हम सफ़र अपना
कैसे कहें, याद हमें अब वो मंजर नहीं आता
गुजारिशों, सिफारिशों में सिमटी ख्वाहिशें हैं
वरना ताल्लुक टूटने से कोई मर नहीं जाता
~ आयुष-
जिसने अपनी उंगली पकड़ चलना सिखाया
मेरी पेंसिल पकड़ लिखना सिखाया।
मेरी खुशियो की ख़ातिर जिसने खुशिया कुर्बान की
मेरी पढाई की ख़ातिर जिसने मेहनत हज़ार की।
अपनी हर खुशी जिसने मुझसे साझा किया
अपना कोई ग़म न मुझसे आधा किया।
मैं खेलता रहा हर रोज़ बागो में
वो मेहनत करते रहे चिरागों में।
जिसकी वजह से सो सका मैं रातों में
उन्होंने खुशी भी ढूंढी तो मेरी ही बातों में।
मैंने तो न देखा धरती पे राम को
मगर आते हैं घर मेरे रोज़ वो शाम को।-
रात ठहरी ज़रूर है
पर अब सहर आएगा
मां कहती है पहला हिस्सा ईश्वर का
दुआओं का असर आएगा।
शहर की सड़क पर झांक रही इमारतें
गांव की पगडंडी पर तो अपना खंडहर आएगा।
भला कब तक छिपाता फिरेगा इस राज़ को
बादल छटेंगे तो दाग़ चांद का नजर आएगा।
कहीं छूट जाए सांस, पर टूटने से पहले
हमारे लबों पर हमारा शहर आएगा।-
मुझे नाम पता है
दुनिया जहान पता है
मिटा दिया है हर्फ
वो नाम ओ निशान पता है
धंसी हुई जमीन पता है
ठहरा हुआ आसमान पता है
रकीब की पहचान पता है
लम्स का एहसान पता है
बाहों का अरमान पता है
उंगली का फरमान पता है
सब का मीज़ान पता है
रुकती सांसों का अंजाम पता है
दुश्मनी का एतराम पता है
मुझे सब पता है...-
आख़िर ऐसे उठ कर जाने की क्या जल्दी है?
घर से निकल जाने की क्या जल्दी है!
अभी तो मातम पसरा भी नहीं?
फिर जनाज़े से ऐसे चले जाने की क्या जल्दी है!
भला ख़ामोशी का जवाब नाराज़गी कैसे?
तुम्हें हाथ छुड़ा कर जाने की क्या जल्दी है !
मोहब्बत के इतिहास का ये कैसा फलसफा?
दुनिया, तुझे आगे बढ़ जाने की क्या जल्दी है !
ऐ नींद, हमारी तो पुरानी यारी थी ना?
फिर तुझे ऐसे उड़ जाने की क्या जल्दी है !-
मेरे जख्मों का रहम मुझ पे अबतक है
मेरे दुश्मन का सितम मुझ पे अबतक है
वक्त दर वक्त बदल जाती होगी तक़दीर उसकी
मेरी मौत से घर में मातम अबतक है
- आयुष सूर्यवंशी-
ज़मीं से समंदर फिर फलक तक देखो
मुल्क की अमीरी अस्पताल की सड़क तक देखो-