Ayush Singh   (Ayush)
116 Followers 0 Following

Joined 8 September 2016


Joined 8 September 2016
13 FEB 2019 AT 10:37

मैं उठा कुछ बेतकल्लुफ़
एक अधूरे ख़्वाब से

आंख जो खोली तो देखा
कि जिस्म अब भी कब्र में था

-


20 DEC 2018 AT 7:05

सब खत्म कर के भी
ये जिंदा हैं आज तक

ए वक्त तेरे शहर में
ये शमशान क्यों नहीं मरता

-


13 DEC 2018 AT 23:44

बेफिक्र हैं वो रूह,
ये किसके लिबास में।

अगर कहते हो उसे इंसा,
तो तुम झूठ कहते हो।

-


4 DEC 2018 AT 23:39

न जाने किस बोझ तले, दफ्न हैं ये ज़मीं कबसे
ये खुले आसमान में कौन हैं, जो नज़र नहीं आता

-


30 NOV 2018 AT 7:01

अक्सर
अक्सर मैं इस ज़माने से जब मिलता हूं
तो मैं कुछ कहता नहीं
उन फ़क़त सफेद कागज़ो में अपनी कलम से कुछ लिख दिया करता हूं
कुछ बातें जो तब कहनी थी पर कहीं नहीं
कोई रंज जो कभी किसी दबिश का शिकार हुआ हो
या वो ख्वाहिशें जो कभी खत्म ही नहीं होती मेरी
उनमें कैद चंद फसाने होते हैं और साथ ही गिरफ्तार होती है मेरी थोड़ी सी हक़ीक़त

क्यूंकि ये ज़माना भूल जाता हैं अक्सर
वो चाहे मेरे लफ्ज़ ही रहे हो
या मेरे खुदा का वजूद

ये अक्सर सब कुछ भूल जाता हैं

तो ये हो सकता है इस ज़माने में,
कि कभी वक्त के सफर में मेरी रूह इस ज़माने का साथ छोड़ दे
हो सकता है
ये मुमकिन भी हैं
पर ये भी मुमकिन हैं कि वो पन्ने मेरे अफसानों के तब पीले हो चुके होंगे
उनमें वो हर शब्द सिमटा होगा वैसे ही,
जैसे मेहबूब की आंखों में पूरी कायनात सिमट जाती हैं।

तब, जब मैं शमशान में दफ्न होकर या गंगा में सिमटकर बस ख़ाक ही रह जाऊंगा
तब ये पन्ने सिमट कर बनेंगे एक किताब
कुछ काले सफेद लफ्जो में सिमटी एक आज़ाद सी दुनिया होगी
और तब मैं बनूंगा वो किरदार
जिसके कभी अफसाने लिखे थे मैंने
वो किरदार जो अमर हैं
जो कभी इस ज़माने में तो था, पर कभी इसका ना हुआ।

-


29 NOV 2018 AT 20:56

कितने पहलू बचे हैं मेरे ?
और कितनी वो तस्वीरें बाकी हैं ?

कि मुझे इस आइने में अब कोई शख्स नज़र नहीं आता

-


28 NOV 2018 AT 22:42

वक्त के इस शहर में मैंने, यू तो कितने ही मकान बदले
पर इनमें से कोई भी तुम सा किरायदार ना मिला

-


25 NOV 2018 AT 2:51

कैसा रिश्ता हैं मुझसे ए अंधेरे तू ये बताता क्यों नहीं
ये रात गुजरने को हैं, तुझे इंतज़ार किसका हैं

-


20 NOV 2018 AT 0:00

दिसंबर आने को हैं
वो दिसंबर
जब घाटी में जन्नत के आने का एलान हो जाता था।
ये वो समय था जब फोन की घंटियों का शोर अभी हकीकत नहीं हुआ था।
शहर को लपेटे उस चीड़ के जंगल में जब ओस उतरती थी तो सुबह की सिहरन से उसका एहसास हो जाता था।
चौराहे पे लोग मिलते थे, बिना जात और नाम पूछे, तब मुलाकाते होती थी दंगे नहीं, चाय की चुस्कियों में आबाद था वो शहर, मोहब्बत ऐसी की मानो चीनी सा घुल जाना हो कहीं उसे।

उसी दिसंबर में एक सख्स था, बेझिझक बिना किसी रोक टोक के वो लगा था अपने काम में।
ठंडे पानी से बर्तनों को साफ करके, गर्म खाना परोसता था।
बर्फ से पानी में कपड़े धोना हो या बंद खिड़कियों के उस छोटे से मकान में कोयले की अंगीठी से आग को समेटना।
उसने बिना बोले वो सब किया।

क्यों करता था वो ये सब? इतने इंतज़ाम, इतनी मोहब्बत, आखिर क्यों?

हर साल, पुराने ऊन से मां एक नया स्वेटर बना कर कंधो से नापा करती थी।
हमारे हर इंच बड़े होने का एहसास उससे ज़्यादा सिर्फ खुदा को ही मालूम होगा शायद।
खैर वो भी तो एक खुदा ही हैं।

आज फोन आया तो खैरियत पूछी उसने।
मैंने रोक कर कहा - " मां ठंड बड़ गई हैं। "

-


23 OCT 2018 AT 22:47

ये दिल ढूंढता हैं इस गहरे समंदर में किसे
कहीं तेरी चौखट ही मेरा वो आखरी किनारा तो नहीं

-


Fetching Ayush Singh Quotes