कहते हैं हर चीज़ के टूटने का, मिलने का , आने का और जाने का वक्त, जगह और आहट मुकर्रर है, फिर क्यों होता है दर्द किसी के जाने से, क्यों होता है एक भीनी सी मुस्कान का अनुभव किसी अपने के आने की ख़बर मात्र से, क्यों कोई दुआ असर करती है किसी मरहम से बढ़कर,
आख़िर कौन है जो इस जिस्म और रूह के समन्वय को मात दे रहा है.…. अगर इंसान एक मिट्टी का पुतला मात्र है तो फिर क्यों नहीं ये मिट्टी समेट लेती है दुनिया भर की मोह माया अपने अंदर।
बात असल में इतनी सी है कि इंसान मिट्टी का नहीं अपने बनाए हुए जाल में फंसा हुआ एक सर्कस के पिंजरे का शेर है और वह यह जाल तोड़ना जानता है लेकिन तोड़ने की भावना मात्र से मिट्टी के पुतले में बदल जाता है। इंसान इस भंवर जाल में फंसा हुआ ऐसा प्राणी है कि जो वो चाहता है किसी भी हद तक उसको कर सकता है, लेकिन वो क्या चाहे ये चाह नहीं सकता। फिर भी इस सतरंगी दुनियां में अपने हिस्से की खुशी ढूंढ कर अपनी दुनिया में रंग भरने से ही मिट्टी के पुतले में जान प्रवेश करती है। दूर निर्जन रेगिस्तान में मृग मरीचिका के दृष्टिभ्रम की तरह अगर किसी सपने के पीछे भागना या भाग कर उसको पा लेने मात्र से अगर किसी को सीपी के मुंह में मोती मिल गया है तो जीत ली है उसने अपने हिस्से की दुनिया।-
हूं शरण में तेरी कान्हा मैं,
रूप भाव तो दिखलाओ।
अपने जीवन का एक अंश मात्र,
तो मेरे अंदर बतलाओ।
अभी खड़ा हूं दर पर तेरे,
जैसे सखा सुदामा हो।
नहीं चाहिए धरा का वैभव,
मांगने तुम्हें मैं आया हूं।
हो सकल विश्व के प्राणनाथ,
अतुलित यश, ज्ञान, रसों के स्वामी हो।
अंतर्मन के द्वंदों को,
हे कृष्ण तुम्ही ही सुलझाओ।
ओ मुरलीधर, राधावल्लभ,
किस विधि से तुमको पाऊं मैं,
बस एक कृपा की नज़र तुम्हारी
और जीवन सफल बनाऊं मैं।
।।राधे राधे।।-
घंटे बीते,दिन बीते, महीने बीते और बीत गया पूरा साल,
इस बरस इरादों को पंख लगे और उम्मीदों को मिला नया आयाम,
जीवन की आपाधापी के बीच हुआ भगवत कृपा का कमाल,
फिर से हुआ बर्षों से सूने पड़े दरख्तों की कोपलों पर नवजीवन का संचार,
हर बीती हुई चीज को भुलाया नही जाता, कुछ लम्हें या पल जो सिर्फ तुमने महसूस किए हैं रहेंगे तुम्हारे साथ, जब तक तुम रहोगे,
बीता हुआ साल अपने साथ लेकर जाता है कुछ ऐसी ख्वाहिशें जो केवल तुम्हारे जहन में थीं, मगर वह वो सब कुछ दे गया जिसके लिए तुमने हरदम बिना रुके किया अपलक प्रयास।
कुछ स्वर्णिम क्षणों के साक्षी भी रहे हो इस बरस तुम, तुमने देखा है नए जीवन का प्रदुर्भाव और महसूस किया है उस प्रत्येक पल को।
जीवन के उतार चढ़ाव में इस साल कुछ चीजें अगर तुम्हारे लिए अनुकूल नहीं रहीं है तो वो कहते हैं ना if it is not happy ending then it is not ending my friend.
जीवन को वर्षों के फेर में नहीं बांधा जा सकता, हमको हिसाब रखना होगा इन अनमोल क्षणों का, जीना होगा ठीक वैसा जैसा तुमने अपने जहन में जिया है।
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हम जीते हैं नकली अल्फाजों से घिरी हुई वर्णमाला सी जिंदगी,
हरदम संजोते है यादों की पोटलियां और खो देते है इस लम्हें की जिंदगी,
कल,आज और कल का फेर हमको महरूम रखता है छूने से जिंदगी,
विचारों के गर्त में और भावों के बहाव में बस चली जा रही है जिंदगी,
कभी ऐसा भी हो कि हम भूल जाएं खुद को और जी भर के जी लें ये जिंदगी।।
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लम्हा लम्हा जीने की कोशिश की मैंने,
ढल रहा हूं मैं ऐसा कुछ कहा था तूने
अधूरी सांस ,बात, जज़्बात और मुलाकात में
हर पल को पाने की कोशिश की मैंने, हां,
लम्हा लम्हा जीने की कोशिश की मैंने ।।-
आज साल का आख़िरी दिन है और मुझे लगता है कि हर चीज का आख़िरी बहुत ख़ास होता है, जैसे कि किसी से आख़िरी मुलाकात,किसी की आखिरी बात, छुट्टियों के आख़िरी दिन, हमारी नोटबुक का आख़िरी पन्ना या फिर किसी शहर की आख़िरी याद। चाहे पूरे साल कितने भी उतार चढ़ाव रहें हों,साल के इस आख़िरी दिन हम सब यही चाहते हैं कि इस साल की कुछ अच्छी स्मृतियां बच जाएं हमारे यादों के पिटारे में और एक अच्छी शुरुआत हो कल से।मैं दुआ करता हूं हमारे पास जो भी स्मृतियां रहे इस साल की, वो हमे स्वीकार हो, और अगले साल में बस इतना याद रहे कि हर अच्छे की शुरुआत होती है हमसे और हमारे ज़हन से।
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मै जिंदगी में शेष हूँ,
या मकसद लिये विशेष हूँ।
मै कल का वजूद हूँ,
या कल्पना का भेष हूँ।
मै शुन्य मे विलिन हूँ,
या लेखनी में लीन हूँ।
मै कल का सवेरा हूँ,
या वन में खुला शेर हूँ।
मै अंधकार से अजेय हूँ,
या अंधेरे का मेल हूँ।
मै जुगनुओं का खेल हूँ,
या उजाले की देन हूँ।
मै तन्हाई का मोही हूँ,
या एकांत का कोई हूँ।
मै कागजों का साथी हूँ,
या लिखने का भांति हूँ।
मै अजनबी अंजान हूँ,
या कही कोई पहचान हूँ।
मै किसी का गुमान हूँ,
या शिष्ट का ब्रम्हांड हूँ।
मै छूट चुका वो बाण हूँ
या परहित का पैगाम हूँ।-
कितना आसान होता चलते चले जाना
यदि केवल हम चलते होते
बाक़ी सब रुका होता।
मैंने अक्सर इस ऊलजलूल दुनिया को
दस सिरों से सोचने और बीस हाथों से पाने की कोशिश में
अपने लिए बेहद मुश्किल बना लिया है।
शुरू-शुरू में सब यही चाहते हैं
कि सब कुछ शुरू से शुरू हो,
लेकिन अंत तक पहुँचते-पहुँचते हिम्मत हार जाते हैं।
हमें कोई दिलचस्पी नहीं रहती
कि वह सब कैसे समाप्त होता है
जो इतनी धूमधाम से शुरू हुआ था
हमारे चाहने पर।
दुर्गम वनों और ऊँचे पर्वतों को जीतते हुए
जब तुम अंतिम ऊँचाई को भी जीत लोगे
जब तुम्हें लगेगा कि कोई अंतर नहीं बचा अब
तुममें और उन पत्थरों की कठोरता में
जिन्हें तुमने जीता है
जब तुम अपने मस्तक पर बर्फ़ का पहला तूफ़ान झेलोगे
और काँपोगे नहीं
तब तुम पाओगे कि कोई फ़र्क़ नहीं
सब कुछ जीत लेने में
और अंत तक हिम्मत न हारने में
-कुंवर नारायण-