बेपरवाह रातों में जो बेखुदी का आलम है
क्या कहूँ तुम्हे,क्यों कहूं तुम्हे
की तुम्हारी यादों में बढ़ी हुई जो धड़कन है
क्या कहूं तुम्हे,क्यों कहूँ तुम्हे
एक अजीब बीमारी है,लम्हा लम्हा भारी है
खुद के पहेली सुलझाने को रोज नयी तैयारी है
रोज ही मैं उलझता हूँ, यादों से मैं लड़ता हूँ
कभी जो तुम सबसे हसीन थी
सच अब मैं तुमसे डरता हूँ
अरे मैं हाल दिल के उलझन का
क्या कहूँ तुम्हे ,क्यों कहूँ तुम्हे
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