भोजपुरी के नाम एक बिहारी आशिक़ का प्रेम पत्र
(Read in caption)-
ना हाथ जुगनू आए और चरागों ने जला दिया
जिंदगी ने फरमाबरदारी का ऐसा सिला दिया
थोड़ी देर और बुत बनकर रहता तो डूब जाता मैं
टूट गया सब ख्वाब जब हाथ उसने हिला दिया
कैसे बताता मैं की क्यों जागा मैं कल रात भर
सुबह को कमर ने भी मुझसे यही गिला किया
ये ज़िन्दगी वैसे भी नासूर बन चुकी थी मेरी अब
शुक्र है तुमने खात्मे को कोई तो वसिला दिया
अच्छा खासा निकल आए थे जिंदगी में 'फ़राज़'
उसने ख्वाब में आकर मरा हुआ इश्क़ जिला दिया-
खंडहर इमारतों से खुदा का कहर देखते हैं
बेबस लोग कुछ ऐसे अपना शहर देखते हैं
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मुझसे न मिलने के तुम्हारे कई बहाने याद आए
कुछ इस तरह हमारे इश्क़ के अफसाने याद आए
अभी तक ज़िंदा हूं तो हैरत में हूं मैं सुनलो
जब इश्क़ मुझमें जिंदा था वो भी जमाने याद आए
तुमने मुझे सिर्फ एक बार ही नाकाम देखा है
मुझे हर नाकामियों पर तुम्हारे ताने याद आए
बात दीगर है कि अब वास्ता नहीं तुम्हे हमसे
मगर तन्हा ही मुहब्बत के फसाने याद आए
मुझे खुद पसंद नहीं मैं तो औरों से कैसी तलब
'राज' पत्थरों से ठुकराए गए तो दीवाने याद आए-
सियासतदां कहतें हैं दागदार कौन है
हकीमों के मुहल्ले में बीमार कौन है
किसने शोर मचा रखा है हमारे घर के आगे
खुदा के घर में शराब का तलबगार कौन है
एक दूजे पर तोहमत लगाते फिरते हैं लोग
हुकूमत कहती है फिर बेरोजगार कौन है
पाई पाई लौटा दी जाती है खून की बूंदों से
सोचता हूं मेरा इस जहां में कर्जदार कौन है
कितनी खुशी में काट लेते हैं सब वक्त यहां
'राज' तुम्हीं बताओ यहां बेकार कौन है
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मंदिर मस्जिद के नाम पर ललकार की खबर आती है
अब अखबारों में भी बेकार की खबर आती है
बेवजह आमदा हैं सब यहां एक दूसरे की बदनामियों पर
आवाम के सरोकार की नहीं सरकार की खबर आती है
आज भी जद्दोजहद में है ये तबका महिलाओं का
जहां हर रोज़ नए नए बलात्कार की खबर आती है
रद्दी हो गया है अखबार पढ़ने से पहले ही फेंक देता हूं
किनारों का पता नहीं सिर्फ बीच मझधार की खबर आती है
'राज' असल मुद्दे भुला दिए जाते हैं जरूरतमंदो के
कहीं चापलूसी कहीं सास बहू के तकरार की खबर आती है
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हर दिल में फरेब हर लब पर झूठ का पहरा होता है
दरख़्त पूछता है क्यों कुल्हाड़ी का वार गहरा होता है
हम बुज़दिल ये देख देख कर मर मर जाते हैं
क्यों गला फाड़ते हैं जब सुनने वाला बहरा होता है
इक हांथ खोजने निकलते हैं उस जगह से हम
जहां कोई साथ नहीं बस सहरा ही सहरा होता है
सुबह तुमसे शुरू होकर रात तुम तक बितता है
मैं भूल जाता हूं सब कुछ जब ज़िक्र तुम्हरा होता है
अब नहीं मिलेंगे ज़ख्म के निशान मेरी रूह पर
जान किया था वार वहां कांटों का बसेरा होता है-
जब से लगी लत ए शराब मैं कम में पीता हूं
मैं भी आइने को दिए कसम में पीता हूं
तुम्हारे छोड़ जाने का नहीं मलाल मुझको
मैं जिंदा हूं बस इसी गम में पीता हूं
काफ़िर हूं तो दोज़ख में सजा मिलेगी मुझको
ये सोच पेट भरकर इसी जनम में पीता हूं
सुना है हर दर्द भुला देती हुई जाम ए शराब
तुम्हे भूल जाऊं बस इसी वहम में पीता हूं
हर सुबह वादा करता हूं शाम को तोड़ देता हूं
'राज' कभी तनहाई में कभी बजम में पीता हूं-
नज़रों से ओझल होते ही नजारे छुट जाते हैं
देर से आने वाले यूं ही किनारे छूट जाते हैं
निगाहों से छूता हूं जब फलक का चांद
चांद मिलता नहीं और सितारे छूट जाते हैं
ज़िन्दगी के पंजों में जिनको नहीं मिलता आराम
वो बदनसीब भी मौत के सहारे छूट जाते हैं
जब जब मोती चुनता हूं समन्दर की गहराई में
मोती नहीं होता और पत्थर सारे छूट जाते हैं
हम ही नादान हैं जो हर रोज़ ढूंढ़ते हैं 'राज'
घर नहीं मिलता और दयारे छूट जाते हैं-
किताबें छोड़ कर मैं सिर्फ चांद ताकता हूं
चांद में अक्सर तुम्हारा अक्स झांकता हूं
ना तुम हो ना मिलने का आसरा तेरा
फिर क्यूं मैं बेवजह सारी रात जागता हूं
मुझे पसंद है रात की काली परछाई
सो मैं दिन के उजाले से भागता हूं
किताबों के पन्ने पलटते हुए गुजरती है रात
या यूं कहूं मैं अपनी रात काटता हूं
मैं मुसाफिर हूं दो पल का खून टिकता नहीं
जहां ठहर गया वहां की खाक छानता हूं
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