आँखों के इस पार पूरी दुनिया खड़ी है
आँखों के उस पार कोई पहुँचे तो बात बने...-
कि दिल में दर्द कम न हो
शर्त इतनी है मुझको पढ़ने की
कि पढ़ कर आँखें नम न ... read more
इन शोर में गूंज रहे सन्नाटों से डर सा लगता है
अपने ही जिस्म में भी मेरी रूह को बेघर सा लगता है
अपनों के अपने लोगों में ही नाम शुमार नहीं मेरा
फिर भी शिकायत करना निरादर सा लगता है
हवाओं में घुल कर ही उसमें समा जाऊँ क्या
उस चाहत की चाह में ये दिल दर-दर भटकता है...-
इन आँखों से ज़्यादा महफूज़ कोई राज़ क्या रखेगा
मैं रो भी लेता हूँ और इनसे अश्क बहते भी नहीं...-
जिस-जिस ने जितना तोड़ा मुझे
हर एक का नाम अपने टुकड़ों पर लिखा है,
कैसे करीब आए, अपना बनाए और फिर बिखेर गये
ये सब कुछ पूरी दुनिया ने देखा है।
दर-दर भटका, लड़खडाया, संभला
फिर किसी की गोद में बिलक कर रोने लगा,
कहाँ से आया, क्या खोया, क्या पाया
इसका एहसास उन्हें भी होने लगा।
उन्होंने कहा, कि देखो दामन भीग गया मेरा तुमहारे आँसुओं से
कुछ तो हक़ मेरा भी तुम पर बनता है,
सारे अपने तुम्हें तोड़ गये
एक टुकड़ा तो मेरे नाम का भी बनता है...
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अपने अपनों से अपनापन जताते-जताते दूर हो जाते हैं
और हम अपनों के सामने अपने आप मजबूर होते जाते हैं
क्या खोया, क्या पाया अब कुछ फर्क पता नहीं चलता
हर किसी में अपना ढूँढ़ा पर पता नहीं क्यों कोई अपना नहीं मिलता
पहले तो बस रातें लम्बी लगती थी
अब दिन भी लम्बे लगने लगे हैं
ज़िंदगी एक अरसे से ऐसे बीती है
कि गम ही खुशियों जैसे लगने लगे हैं
ख्वाहिशों के अंधेरों के साथ हमेशा फरियाद मिलेगी
कुछ चीज़ें बरबाद थी और हमेशा बरबाद ही मिलेंगी...-
बादलों में चाँद की तरह खुशियाँ भी कभी दिखती तो कभी घुम हो जाती हैं
ज़िंदगी भी खुशबू की तरह महकती हुई गुज़र जाती है
अक्सर ख्वाहिशों को मैं किसी चौराहे पर छोड़ आता हूँ
पीछा न कर सके मेरा इसलिए उनका चहरा दूसरी ओर मोड़ आता हूँ
तन्हाईयों की मशाल जला कर लड़खड़ाते हुए
मैं शोर की ओर रोज़ थोड़ा बढ़ जाता हूँ
तजुर्बों से पल-पल पिघल कर
एक नए आकार में हर रोज़ ढ़ल जाता हूँ
कभी लड़ा, कभी गिरा, कभी गिर कर बिखर गया
और उठने की सारी कोशिशें अब बेज़ोर नज़र आती हैं
ठहर-ठहर कर आगे बढ़ा पर फिर भी बढ़ न सका
ज़िंदगी भी अब थोड़ी कमज़ोर नज़र आती है
हवाएँ सीने से लिपट कर अक्सर घाव भर देती हैं
और जुगनुओं की रौशनी भी ज़िंदगी में थोड़ा उजाला कर देती है
सितारों को देखकर मैं अब भी मुसकुरा देता हूँ
रात के आगे मैं दिन को अब भी ठुकरा देता हूँ...-
सारे ज़ख्मों को अपना ढ़ाल बना दिया है
देखो मैंने अपनी ज़िंदगी को कमाल बना दिया है
जो मेरे होने पर सवाल उठाते थे कभी
आज उनके होने को सवाल बना दिया है...-
ज़िंदगी में हर चीज़ बराबरी में बाँटने का हमारा वादा था
जैसे भूलने का उसका और याद करने का मेरा आधा था...-
भले ही चारों तरफ़ लोगों का मेला न रहे
दो-चार ही हों अपने, बस कोई अकेला न रहे...-
आज-कल चश्मे के बिना रहता हूँ,
चश्मे से ज़िंदगी अब ज़्यादा धुंधली नज़र आती है...-