क्रांकिट के इन जंगलों में
जब कोई पेड़ कटकर लुप्त हो जाता है।
तब केवल पेड़ लुप्त नही होता
कुछ पंछी और गिलहरियाँ भी लुप्त हो जाते हैं।
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मन की उड़ान हम भरते हैं।
बंद आँखों की बातो को,
अल्हड़ से इरादों को।
को... read more
कितनी परते उधेड़ता हूँ,
तुम्हारा रंग उतारने को।
तुम शायद
गहराइयों में ज्यादा हो,
परत दर परत
तुम्हे ज्यादा पक्का पाता हूँ।-
तुम्हारा नाद गूँजता है,
मन के अँगना लगातार।
कर्णप्रिय,सरस,अविरल झंकार,
छेड़ती रहती है मन के तार।
छिड़ उठती है मेरे मन मे,
कभी प्रेम,कभी विरह की तान।
होकर भाव विभोर बेसुध मै,
झूमता हूँ इसमे बारंबार।
इस गूंज के हर भाग में फैली हो,
जैसे तुम्हारी ही आवाज।-
एक टुकड़ा चाँदनी का-एक टुकड़ा धूप का।
ठंडक और गर्माहाट देह पर एकसाथ उतरीं थीं
तुम्हारी छुअन का एहसास मौसमों के परे था।
आग और पानी दोनो मिल गए आधे-आधे।
थोड़ा सा सुकून था,थोड़ी सी जलन उभरी थी
तुम्हारा असर भौतिक आयामों के परे था।-
ऊँचाई बढ़ रही थी,शाखाएं फैल रही थीं।
मैं देख रहा था,एक पेड़ बड़ा हो रहा था।
हरी पत्तियां विस्तार ले रहीं थीं,
पीले फूल खिलने लगे थे।
मै देख रहा था,एक पेड़ जवां हो रहा था।
अब वो पेड़ फलो से लद गया था।
मैं देख रहा था,एक पेड़ प्रौढ़ हो रहा था।
पत्तियां बिखरने लगी थीं,शाखाएं टूटने लगी थीं।
मैं देख रहा था,एक पेड़ बूढ़ा हो रहा था।-
जिद्दी सी,झल्ली सी भावना
भरी हुई थी बचपने से।
संयमी सा, सुलझा सा तर्क
बड़प्पन का दिखावा कर रहा था।
एक रोज चुपके से!
मै खिड़की से झाँक आया,
तर्क के कमरे में।
जब भावना की माया मे लीन वो
बेढंगी और मासूमियत से
भरा हुआ था।-
काला टीका बनकर
तुम्हारे माथे पर सज जाऊँगा।
काजल की रेखा बनकर
तुम्हारी आँखों मे लग जाऊँगा।
तुम्हारा श्रृंगार हो या नजरबट्टू
सब मै ही बन जाऊँगा।-
इकट्ठा थे किसी बाग में
गुलाब,गेंदा और रजनीगंधा।
चल रही थी पंचायत
हममे किसकी है श्रेष्ठता।
तभी बाग के माली ने
उन सब को ही चुन लिया।
घर के एक गुलदस्ते में
साथ में ही सजा दिया।-
ओढ़ लूँ मै,
सागर की आती जाती लहरों को चादर बना।
कर लूँ आवागमन,
नदी की चंचल धाराओं को पादुका बना।
उड़ जाऊँ आसमन में,
आती-जाती उन्मुक्त हवा को पंख बना।
ढूंढ लूँ कोई हमदम,
बगिया के फूलों की शोख सुगंध में।
देख लूँ किसी की मुस्कान,
सूर्य की शोभ उजली किरणों में।-
ये तोहमतों की बस्ती है,
शिकायतें बहुत सस्ती हैं।
अंधे निष्कर्षों से मिलकर,
सबकी दुकानें चलती हैं।
नजर दौड़ती है चारो ओर,
बस खुद पर नही पड़ती है।-