मैं झुकता हूँ,
पर संगमरमर के सामने नहीं —
उनके आगे,
जिनके हाथ मिट्टी में सने हैं
और दिल अभी भी जीवित हैं।
मुझसे कहा गया —
"विश्वास रखो, वरना अनर्थ होगा!"
मैं मुस्कुराया…
कहा — “अगर सत्य इतना कमज़ोर है,
तो झूठ की भी कृपा क्या करनी?”
मैं नास्तिक हूँ —
पर नकार में नहीं,
प्रश्न में हूँ।
मैंने मंदिरों से ज़्यादा
खामोश रातों से संवाद किया है,
जहाँ आत्मा ने धीरे से कहा —
“ईश्वर, शायद तुम ही हो…”-
कभी अख़बार उठाओ,
तो हर हेडलाइन कहती है
“देश मज़बूत है!”
पर नीचे छोटे अक्षरों में छपा होता है
“जनता कमज़ोर है…”
हम वो मुल्क हैं,
जहाँ संविधान ज़िंदा है,
बस उसका पाठ करने वाले
अब या तो मूक हैं...
या बिके हुए।
कभी-कभी सोचता हूँ,
क्या हम लोकतंत्र के वारिस हैं
या तमाशे के दर्शक?
संविधान की नींद गहरी है,
क्योंकि अब कोई जगाने नहीं आता
हर कोई बस
“जय हो” कहकर
फिर सो जाता है…-
वो गुज़रा ज़माना कुछ और ही था,
जब ख़ुशियाँ सस्ती और मुस्कानें असली थीं।
ना मोबाइल, ना चैट की झंकार थी,
बस छतों से आती हँसी की पुकार थी।
रविवार की सुबह में रंगीन परदे थे,
चित्रहार की धुन में पूरे मोहल्ले के अरमान थे।
काग़ज़ के हवाई जहाज़, नीले आसमान में,
जैसे सपनों के पंख हमारे ही नाम थे।
स्कूल की ड्रेस में पसीने की महक,
और छुट्टी की घंटी में आज़ादी का स्वाद था।
माँ की पुकार में घर का सुकून,
और गर्म पराठों में पूरा जहाँ बसता था।
कंक्रीट की जगह मिट्टी थी,
दोस्ती में सच्चाई की नमी थी।
ना इंस्टा, ना फ़िल्टर का झमेला,
हर चेहरा बेफ़िक्र, हर दिल अकेला नहीं था।
अब वो गली वही है, पर बच्चे नहीं,
हवा वही है, पर महक कहीं खो गई।
कभी-कभी लगता है —
ज़िन्दगी आगे बढ़ गई,
पर दिल… अब भी 90s में ही अटका है।-
दीवार पर अब भी तस्वीर टँगी है,
पर अब वो आँखें किसी को देखती नहीं,
सिर्फ़ हवा के झोंके से हिलती हैं, जैसे यादें थरथराती हों।
आईना रोज़ सुबह मेरा नाम पुकारता है,
पर लौटती है एक परछाई, जो अब नहीं ।
शायद आईने ने भी सीखा है, सच को धुंध से ढकना।
बातें अब शब्द नहीं रहीं,
वे राख के कण, हर साँस के साथ उड़ते,
पर जलने की गंध अब भी बाकी है।
घर अब भी वैसा ही है
सामान वही, लोग वही, आवाज़ें वही,
बस बीच में एक न दिखने वाली दीवार उग आई है
जो हर रिश्ते को थोड़ा-थोड़ा बाँटती जाती है।
और मैं...
अब उस दीवार के उस पार खड़ा हूँ,
जहाँ मोहब्बत अब भी साँस लेती है,
पर धड़कनें किसी और ताल पर चलती हैं।
रिश्ता… हाँ, अब भी है।
बस इतना बदला है
कि अब यह जुड़ाव नहीं, एक मौन उपस्थिति है।
जैसे नदी के सूखे तल में पानी की याद,
या राख में बचा आख़िरी ताप...-
हर मोड़ पर मैंने घर को थामे रखा,
पर दीवारों ने मुझे दरवाज़ा समझा,
रिश्ता शायद अब सिर्फ़ नाम का रहा.-
रात की ख़ामोशी में
जब हवाएँ भी सांस रोके खड़ी होती हैं,
मैंने अक्सर देखा है —
वक़्त रुक जाता है,
और आत्मा अपने असली रूप में
आईने सा साफ़ नज़र आती है।
इस सन्नाटे में
शब्द मर जाते हैं,
बस विचारों की धड़कन सुनाई देती है —
जैसे ब्रह्मांड खुद कोई अनसुना गीत
धीरे-धीरे गुनगुना रहा हो।
चाँद कभी-कभी पुकारता है,
“क्या तुझे अब भी तलाश है उजाले की?
या तू समझ चुका है कि
अंधेरा भी उतना ही पवित्र है?”
रात की ख़ामोशी में
मुझे महसूस होता है —
ज़िंदगी कोई हलचल नहीं,
बल्कि एक लंबी प्रतीक्षा है,
जहाँ हर प्रश्न का उत्तर
ख़ामोशी के भीतर ही छिपा बैठा है।-
"पहली मुलाक़ात की सालगिरह"
वो दिन था कुछ ख़ास,
जैसे रूह ने रूह को पुकारा हो पास।
तेरी आँखों की चमक में, मैंने देखा सपना,
उस पल लगा कि मुकम्मल है जहां अपना।
तेरे होंठों की मुस्कान ने,
मेरे दिल की धड़कनें गा दी गज़लें।
तेरे आने से यूँ खिल उठा जहाँ,
जैसे वीराने में बहार आ गई वहाँ।
आज उसी लम्हे की बरसी है,
जहाँ मोहब्बत की कली पहली बार खिली थी।
तेरे संग हर सफ़र आसान है,
तेरे बिना हर ख़ुशी वीरान है।
तेरे नाम से ही है मेरी दुआओं की मिठास,
तू है मेरी धड़कन, तू ही मेरी साँस।
इस दिन को यूँ ही सजाते रहें हम,
तेरे साथ अपनी दुनिया बसाते रहें हम।-
तेरी यादों की परछाइयों में मैं खो गया,
दिल की तख़रीब से खुद ही रो गया।
जहाँ कभी मोहब्बत का उजाला था,
अब वहाँ वीरानियों का ही डेरा हो गया।
हर लफ़्ज़ में तेरी खुशबू ढूँढता हूँ,
हर ख़ामोशी में तेरा नाम सुनता हूँ।
मगर तक़दीर की लिखावट ऐसी बनी,
पलकों पर आंसू और होंठों पर खामोशी रह गई।
तूने चाहा या वक़्त ने किया ये फ़ैसला,
पर दिल का शहर तो वीरान हो चला।
अब मोहब्बत की गलियों में सन्नाटा है,
तख़रीब का हर ज़ख्म दिल में गहरा समा गया।-
चलते-चलते रास्ते बदलते रहते हैं,
सपनों के सहारे हम संभलते रहते हैं,
ग़म हों या खुशी — साँसों में पलते रहते हैं।-
तेरी बाहों का जो सुकून है,
वो दुनिया की हलचल से परे है।
थकान भी मुस्कुराहट बन जाती है,
जब सिर तेरा सीने पे गिरे है।-