Avinash Jha   (बेईमान लफ्ज़)
201 Followers · 91 Following

Instagram.com/avinash.jhq
Joined 16 November 2019


Instagram.com/avinash.jhq
Joined 16 November 2019
54 MINUTES AGO

ख़्वाबों से भी, हक़ीक़त से भी गुरेज़ाँ हूँ मैं,
तेरी यादों के ताबीर से भी गुरेज़ाँ हूँ मैं।

वक़्त ठहर-सा गया है इन तन्हा राहों में,
रिश्तों की टूटती ज़ंजीर से भी गुरेज़ाँ हूँ मैं।

नज़रें मिलाऊँ तो दिल का बोझ बढ़ जाता है,
तेरे जिक्र की हर तासीर से भी गुरेज़ाँ हूँ मैं।

मगर अजीब है कि जितना दूर जाता हूँ,
तेरे होने की तामीर से भी गुरेज़ाँ हूँ मैं।

-


AN HOUR AGO

उस चाँद से पूछो,
कितनी बार उसने
तेरी आँखों में अपनी रोशनी उतारी है।

उस चाँद से पूछो,
कितने बादलों के पीछे छुपकर
तेरा नाम चुपके से फुसफुसाया है।

उस चाँद से पूछो,
कितनी रातों में उसने
तेरे ख्वाबों के संग मेरे ख्वाब सजा दिए।

और अगर वो चाँद चुप रहे...
तो जान लेना,
उसकी ख़ामोशी भी
मेरा ही इज़हार है।

-


AN HOUR AGO

देखो ना,
बारिश कैसे खिड़की पर
कहानियाँ लिख रही है।

देखो ना,
ये हवा कैसे किताब के पन्ने
बिना पूछे पलट देती है।

देखो ना,
रात कितनी गहरी है
पर एक दीया अब भी जला हुआ है।

देखो ना,
मैं चुप हूँ,
मगर मेरी ख़ामोशी भी
कुछ कहना चाहती है।

-


22 HOURS AGO

रात सुहानी है,
हल्की सी बूँदें खिड़की से टकराती हैं,
जैसे आसमान धीरे-धीरे
अपनी बातें फुसफुसा रहा हो।

कमरा खुशबू से भरा है—
चाय की चुस्कियाँ, पुराने पन्नों की सरसराहट,
और एक उपन्यास,
जो मेरे हाथों में अब तक जीवित है।

बारिश की हर बूँद
किसी शब्द की तरह गिरती है,
कहानी में नए मोड़ बनाती है,
और मैं,
उस कवि या लेखक की कल्पना में खोया,
जैसे समय भी अब यहाँ रुका है।

रात सुहानी है,
हवा ठंडी,
किताब गरम हाथों में,
और मन के भीतर
एक मीठा सन्नाटा बसता है।

-


YESTERDAY AT 20:42

भारतीय रेल में समय कभी घड़ी से नहीं चलता,
ये चलता है अपने मूड से।
कभी 3 घंटे पीछे,
तो कभी 3 मिनट पहले—
यानी ट्रेन नहीं, कोई जिन्न है।

मैं स्टेशन पर गाड़ी पकड़ने आया,
रेल ने कहा: "भाई, थोड़ा आराम कर ले, मैं 3 घंटे लेट हूँ।"
मैंने चैन की साँस ली,
खोल मोबाइल वक़्त काटने लगा।

अचानक ऐप बोला—
“सरप्राइज! आपकी ट्रेन आ चुकी है,
बिना बताए, बिना प्लैटफ़ॉर्म बताए।”
जैसे बारात तो आई,
पर दूल्हा पता नहीं किस गली से निकला।

कई प्लेटफार्म, कुछ पर ट्रेनें खड़ी,
घोषणा सबके लिए,
बस मेरी ट्रेन गुप्तचर मिशन पर थी।
मैं दौड़ा-दौड़ा हर प्लेटफ़ॉर्म चढ़ा,
पर रेल बोली—
“पकड़ सको तो पकड़ लो।”

आख़िर में दूसरा ऐप खोला,
तो उसने कहा—
“अरे आराम करो, भाई!
तुम्हारी ट्रेन अभी दूर है।”

तभी समझ आया—
भारतीय रेल सिर्फ़ यात्रा नहीं कराती,
ये धैर्य, सहनशीलता और कार्डियो एक्सरसाइज़ का
मुफ़्त पैकेज भी देती है।

-


YESTERDAY AT 8:29

आस दबी-दबी सी
दिल के किसी कोने में पड़ी है,
जैसे बुझती आग की राख में
अब भी थोड़ी-सी गर्मी बाकी हो।

चेहरे पर ख़ामोशी है,
होंठों पर थकान,
पर आँखों की तहों में
वो आस अभी भी टिमटिमा रही है।

कभी लगता है—
बस एक झोंका हवा का
इसे पूरी तरह बुझा देगा,
और कभी लगता है—
यही छोटी-सी चिंगारी
फिर से नया सूरज जला सकती है।

-


YESTERDAY AT 6:55

कहीं अंदर पड़ी है रात,
दिन की हलचल के नीचे छुपी हुई,
सपनों की राख में दबी हुई।

चेहरे पर धूप है,
मगर आँखों में अंधेरा अब भी ठहरा है।

कहीं अंदर पड़ी है रात,
बिना तारों की, बिना चाँद की—
बस खामोशी का एक सागर,
जहाँ लहरें उठती तो हैं,
पर किनारा कभी नहीं मिलता।

लोग पूछते हैं—
"इतना चुप क्यों हो?"
कैसे बताऊँ,
मेरे भीतर रात जागती है
और सुबह तक सोती नहीं।

-


21 AUG AT 15:02

समाज, तुष्टिकरण?
नहीं,
ये तो बस
“बाँटो और वोट पाओ” की
पुरानी कला है।

तुम सोचते हो
कि तुम्हारी क़ीमत है—
हाँ है भी,
बस पाँच साल में एक बार,
जब स्याही की एक बूंद
तुम्हारी ऊँगली पर लगाई जाती है।

बाक़ी वक़्त?
सरकार जनता के लिए नहीं—
विशेष वर्ग के लिए है,
अति विशेष के लिए है,
और तुम्हारे लिए?
सिर्फ़ जुमले।

-


21 AUG AT 14:55

मैंने कब कहा

मैंने कब कहा कि सरकार तुम्हारी है?
सरकार तो उनकी है
जिनके हाथ में नोट हैं,
जिनकी आवाज़ सीधी दिल्ली की दीवारों से टकराकर
दरवाज़े खोल देती है।

तुम्हारी बारी?
पाँच साल में एक दिन,
जब उँगली पर स्याही लगे,
और तुम समझो—
“मैं भी मालिक हूँ।”
बाक़ी वक़्त तुम सिर्फ़ प्रजा हो,
या और साफ़ कहूँ तो—
भूलने लायक भीड़।

समाज-तुष्टिकरण?
हाँ, है ज़रूर।
कभी मज़हब के नाम पर,
कभी जात के नाम पर,
कभी भूख को भी
राजनीति का हिस्सा बना दिया जाता है।

मैंने कब कहा कि ये लोकतंत्र सबका है?
ये तो बाज़ार है—
जहाँ वोट बिकते हैं,
नारे बिकते हैं,
और इंसानियत हमेशा घाटे में रहती है।

-


21 AUG AT 14:47

मैंने कब कहा
कि मेरी हार तुम्हारी जीत है?

मैंने कब कहा
कि तुम्हारे तराज़ू से
मेरे सपनों का वज़न नापा जाएगा?

मैंने कब कहा
कि मैं वही बनूँगा
जो तुम देखना चाहते हो?

मैंने बस इतना कहा—
मैं गिरा हूँ,
टूटा हूँ,
पर झुका नहीं।

मेरी चुप्पी कमज़ोरी नहीं,
तूफ़ान से पहले की
ख़ामोश तैयारी है।

-


Fetching Avinash Jha Quotes