रंग मैंने हैं उबाले, आँच पर उम्मीद की, अब्र रंगीं हो फ़लक पे, रंगीन और बरसात हो। संवेदना की एक चुटकी, रोज़ लें हम सुब्हो-शाम, शोर में भी शून्य हो, मौन में और बात हो।
रख लो गुल, ख़ार-ज़ार हमें दो, हम फिर गुलज़ार बनाऐंगे। आज तपा के सुर अपने, कल राग मल्हार सुनाऐंगे। तोड़ दो पर, सितम कर लो, मंज़िल टांग उफ़ुक़ पे दो, हमारा भी वक़्त है! ज़िद करेंगें, और उतार लाऐंगे।
अख़बार के आख़िर सफ़्हे का गुमनाम इश्तिहार-सा, मैं गर्द में लिपटी हुई हर दास्तां में शुमार-सा। अहल-ए-दहर मैं क्या कहूँ, तेरे निज़ामों का असर! हर रोज़ मिलता हूँ मैं खुद से, इक नये किरदार-सा।