मृत्यु कोई घटना नहीं
बल्कि एक प्रक्रिया है
जिसका नाम जीवन है।।-
मेरे जीवन के अँधेरे बड़े कमरे में
एक दीप प्रकाशित था
ये मेरे विश्वास की कल्पना का
दीप था।
उस कल्पना का जिसमे
तुम्हारा प्रेम युगों युगों तक सिर्फ
मेरे लिए समर्पित था।
मैंने उसी दीप तले के अँधेरे
में अपने भविष्य को प्रकाशवान किया था।
मैं उस कल्पना में भी नहीं चाहता था कि
यथार्थ के धरातल पर तुम्हारा प्रेम
मेरे ह्रदय की मिट्टी में जड़ पकड़े
और उससे सत्य और सौंदर्य की घास उगे।
क्यूंकि तुम्हारा प्रेम सूर्य की तरह था
जिसे ना तो मेरे जीवन का अँधेरा सहन कर
सकता था
ना ही मेरी आँखों का भविष्य।
परन्तु दुर्भाग्य से ही मेरे जीवन में
शीघ्र ही यथार्थ का वो तूफ़ान आया
जिसने उस कल्पना का दीप तो बुझाया ही
मेरे भीतर की उम्मीद की किरन को भी साथ ले गया।
अब मेरे पास ना वो दीप है
ना तुम हो
और ना ही वो अँधेरा है
जिसमे मैं अपनी कुंठा
में बिना किसी की नज़र में आये आंसू बहा सकूँ।
और ना ही वो किरन है
जो काले घने बादलों के बीच
आत्मविश्वास की लकीर की तरह चमके
जिससे मैं अपने भविष्य के आकाश पर
जीवन का कोई चिह्न छोड़ सकूँ।।।।
-
खोखला बाँस अधिक शोर करता है
तो यदि किसी को अपने डंडे का सिर्फ
शोर करना हो
तो वह खोखले बांस से ही मारेगा
ये खोखला बांस फेक न्यूज है
मारने वाला राजनेता
और हम सब वो हैं जिसकी नंगी पीठ
पर धड़ाधड़ बांस पड़ रहें हैं।
हमारे समय का दुर्भाग्य ये भी है
हमारी पीठ का इतिहास
उस बांस से भी अधिक खोखला है
इसलिए वो बांस न तो हमारी पीठ पर
कोई निशान छोड़ पाता है
और न ही हमारे हृदय पर।।-
कभी कभी सोंचता हूँ
कि क्या दलितों
का ईश्वर भी वही है
जो सवर्ण हिंदुओं का है।
जो प्रह्लाद और द्रौपदी को तो
बचाने आ जाता है
पर किसी महार की आवाज़ भी नहीं सुनता
सवर्णों का ईश्वर भी अछूतों को उन्हीं की तरह
अछूत समझता है
और केवल सवर्णों की रक्षा के लिए तत्पर रहता है।
दूसरों के दृष्टिकोण से देखो
तो चीजे कितनी बदल जाती हैं
जैसे पशु और पक्षी अपने ईश्वर की मूर्ति
बनायेंगे
तो वह कभी राम जैसी नहीं होगी
क्योंकि राम उनके लिए मनुष्य हैं
वह मनुष्य जो उनपर आये दिन अत्याचार करता है
अतः ईश्वर भी सिर्फ सोंच की उपज है
सत्य की नहीं
यदि वह सत्य की उपज होती तो
बाकी प्रजातियों के ईश्वर की शक्ल भी
मनुष्य के ईश्वर से मेल खाती।।-
मैने जीवन को देखा
भ्रमित हुआ
थका,हारा,टूटा।
मैने ईश्वर को खोजा
उद्वेलित हुआ
थका,हरा,टूटा।
मैं सत्य की ओर भागा,
विचलित हुआ
थका,हरा,टूटा।
परंतु मैने जब प्रेम को सूँघा,
विस्मित हुआ
सत्य,ईश्वर,जीवन फूटा।।-
रूह झुकती नहीं जब किसी दरबार के आगे
तो कैसे झुकेगी अब वो किसी सरकार के आगे
नगमा ए आजादी उभरेगा जेहन से
टूटी हुई पाजेब है अब तलवार के आगे
बेड़ियों से चाहे बांध दे रोशनी को अंधेरा
बिखरेगी वो फिर भी हर अंधकार के आगे
अपनाओगे हर बात तो वे थोपते ही रहेंगे
खुदा को पा जाओगे तुम हर इनकार के आगे
पत्थर का गर नहीं है तो दिल पिघलेगा जुल्म का
चारागर भी तड़पता है वैसा ही बीमार के आगे॥-
हो सकता है कल मेरी
कविता की पोथी
रद्दी के डिब्बे में पड़ी मिले
या उस हलवाई के पास
जो उस पोथी से कागज
फाड़-2 कर लोगों को
10 रुपये की जलेबी देता है
मेरी कविता तब तक उस कागज से
मूल्यवान नहीं है
जिसे आखिर में भूखा जानवर
चाटता है
जब तक कोई व्यवस्था से बुझा
आदमी
मेरी कविता के कागज पर
10 रुपये के क्रांति नहीं खाता
कविता दियासलाई होती है
मशाल किसी और को बनना पड़ता है
कविता हर युग में
गांधी या भगत सिंह का रूप लेकर
नहीं आ सकती
कविता रूप बदलती है
कभी विद्रोह का
कभी विद्रोही का
कभी क्रांति का
कभी शांति का
और कभी सिर्फ उस कागज का
जिस पर रखकर कोई रिक्शेवाला
15 रुपये की पकौड़ी खाता है॥-