मैं अब जब भी गिरता हूं, जमी पे गिर ही जाता हूं।
उठता हूं अकेले ही, जिस्म को सहलाता हूं।
खटकती है तेरी बाते, जो कह के तुम उठाते थे।
अकिंचन हूं अकेला मैं, चोट लगने पे पिता कह मैं चिल्लाता हूं।
के जब भी रोता था कभी भी मैं, हिम्मत तुम दिलाते थे।
थे मेरे सखा से तुम, अनाथ बन अब जीवन चलता हूं।-
ऐ ज़िन्दगी कब तक भगाएगा मुझे।
कभी तू भी तो पाजेब पहन मेरे साथ चल।-
बेवजह तुझपे गुरुर था हमें ऐ ज़िन्दगी ।
वक़्त आने पे पता चला, तुमसा बेवफ़ा कोई और ना है।
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अपने जैसे के सफे में मुँह को छुपा के रहते हैं लोग।
और कहते हैं के बेदाग हैं हम।
मजा तो तब है, जब काजल की कोठरी से निकलो।
और कहो के बेदाग हैं हम।-
आज भी तुम ख्वाहिशों के उसी मोड़ पे हो।
जहाँ अक्सर हम वक़्त गुजारा करते थे।-
कल तक जो था आँख का तारा।
आज नयन का नीर बना।
समय भी बदला, वक़्त भी गुजरा।
किन्तु आज नयन ये छीर बना।-
बहुत तनहा, बेबस और अकेला हूँ।
पता है क्यों,
आज भैया दूज है और मैं, आज अकेला हूँ।-
कभी सरारों से सराबोर थी ज़िन्दगी।
अब तन कोहरे सा लगता है।
कभी बेबाक उलझ पड़ता था मैं।
अब मौन व्रत रख,..... मन कहता है।-
कदम पीछे हम भी रख सकते हैं।
कलेजा लहू का हम भी रखते हैं।
फर्क बस एक है उनमें और हममें।
वो अंजुमन में रहते है और हम मन में रखते हैं।
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मन तनहा, अशांत और ख़ौफ़ में है।
ऐसा लगता है, कलेजे को खरोंचा हो किसी ने।-