उठो युवाओं,
इक राह बनाना है
वर्षों की मेहनत का हिसाब कराना है
अपमानों के अब धूल मिटाना है
मृत पड़े तंत्र को,
सपनो की ज्वाला दिखलाना है
उठो युवाओं, इक राह बनाना है
भ्रष्ट सिस्टम से आंख मिलाना है
परिवर्तन की बयार चलाना है
पौरुष का शौर्य दिखाना है
अपने हक की आवाज उठाना है
उठो युवाओं, अब इक राह बनाना है ।।-
हाँथो की लकीरी में फकीरी कहाँ है?
क्षुब्द मन हो रण में विजयी कहाँ है?
अंतर की व्यथा में उत्साही मन कहाँ है?
बिन वनवास रामचंद्र मर्यादित कहाँ है?
अर्जुन सहित पाण्डव बिन संघर्ष, कुरूपति कहाँ है?
तम बिन ज्योति कहाँ है ?
हे योद्धा ! समर शेष है ;
पथ विस्तृत अपार है
मन सुदृढ़ प्रफ्फुलित अपरम्पार है
बाधाएं अद्भुत श्रंगार है
अभी, प्रत्यंचा की घनघोर गर्जना शेष है.
राम की प्रतिज्ञा शेष है ..
अर्जुन का लक्ष्य शेष है
समर शेष है......-
कुछ पढ़कर लिखना है
गिर कर फिर उठना है
यह जीवन है
रोकर फिर हंसना है
कदम कदम बाधाएं है
कुछ रुक कर चलना है
हर क्षण निकलता जाता
बस कुछ पल जीना है
घर घर बनती दीवारों का
एक छोटा दरवाजा बनना है
छाये अनबन का अधियारा जब
प्रेम का दीपक बनना तब
रहे मायूसी जब मन में
लौटना वही बचपना में
जो रहो कभी अकेलेपन में
यारो का स्पर्श स्मरण रखना
इन भूली बिसरी यादों का
गुलदस्ता लेकर चलना
यही तो जीवन है
कि गिरकर फिर उठना है ।
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काली घटा घनघोर छाई है
आज मनुजता पर, फिर विपदा आई है
क्या हो धर्म तुम्हारा
दुविधा में न हो मन तुम्हारा
गर संदेह हो अब भी
तो सुन लो!
चीर कलेवर देखो
सब में बहता एक वर्ण रक्त
कहता यही..
नहीं अलग है कोई
समय की भी है, अंतिम चेतावनी
गर आगामी पीढ़ी को देना है ,
सभ्यता का उपहार
तो धीरज धर रहें सब
अपने -अपने वास ।।
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उसे छोड़ आजाद होना था मुझे
मुझे क्या पता उसकी यादों में
ताउम्र कैद होना था मुझे ।।-
अहम,वहम,रहम; सब सहम गए ।
अतिरेक, व्यतिरेक स्वमेव हो गए ।
धनुर्धरों के धीरज धैर्य ; धरा में धरे रह गए।
इस धधकती दाह में सब दहक गए।
रोको इस अकाल ; काल को।
तत्पर है; नवजन्म नवांकुर राष्ट्र नव निर्माण को।।-
पतझड़ सा सूना है मन
यादों की देहली पर;
फिर आया है बसन्त
मालूम नहीं ;
यह कैसा है संगम!
सूखे में है, हरियाली का उत्सव
साख में आते नव पत्तो सा अनुभव
कौतूहल में है मन ;
कि जान सके उसका भी अंतर्मन ।-
तेरे दिल मे उतर के हाल कुछ यूं सा हो गया है
कि धड़कने एक सी हो गई हैं
तेरी एक उफ्फ की आहट भी मुझसे मुखातिब हो के जाती है
राधे!अपने ही हाल में रहा करो ...
ये हाल भी तो अब हमारा हो गया है ।-
तपित धूप काया झुलसाये
खग,वृक्ष,जंतु सब अकुलाये
नदी,कूप,तालाब पाताल समाये
अंधी दौड़ विकास की, विकराल रूप दिखलाये
मानव तू अब इस दौड़ पर विराम लागए
आओ अब, सब मिल संकल्प लें
हर वर्ष वृक्ष लगायें ।
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अपने अरमानों के जुगुनू कभी बुझने मत देना
अक्सर इन जुगनुओं को चिराग बनते देखा गया है
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