अपनी ही निगाह से देखे तो कोई बात बने
एक क़तरे को समंदर नज़र आए कैसे
जो ग़र कभी रेगिस्तान को देखा ही नहीं
ख़्वाबों में रेत के महल वो बनाए कैसे
दिमाग ने जो जंग में एक डर बनाए रखा है
इकलाख को दिल की दहलीज़ पर लाए कैसे
सरज़मी जो आबरू की, हो उनकी गिरफ़्त में
उससे निकल कर जाए तो जाए कैसे
ग़र कभी महसूस करते हालत-ए-बेज़ारी तो बेज़ा न होता
शब्दों में अनकहे एहसास लाए कैसे
अपनी ही निगाह से देखे तो कोई बात बने
एक क़तरे को समंदर नज़र आए कैसे !!
-प्रताप-
Engineer
Poetry lover
Singer
Actor
Writer
Flute player
Called me प... read more
सपनों के पलकों तले जब छुपता है अंधेरा
तब चुपके से कहीं पूरी रात चाँद जला करता है
भटकते हुए ख्वाबों में कुछ दूर से लौट आता हैं अक्सर
सहर तक उसे ढूढने का सिलसिला रहता है
निकाल कर यूं महंगे महंगे तोहफ़े उनकी यादों के
ख़ामोशी से दर्द-ए-दिल को बिन मांगे दिया करता है
फिसलता रहता है हर रोज़ उसकी पलकों से हौले हौले
रेत से कुछ ठहरने की नसीहत लिया करता है
समंदर के साहिल पर बैठ कर एक आस के सहारे
गुज़रते लहरों से उसका पैगाम चला करता है
तब चुपके से कहीं पूरी रात चाँद जला करता है!!
-प्रताप
(सहर- भोर)-
ख़ाली ख़ाली जो दिल था अचानक आज भर गया
एहसास जो रहता था एक ख़ुद कत्ल होकर मर गया
दीवारें भी उदास थी झरोखें भी घूरती रहीं
समंदर को पिरोए अपनी आंखों में कंदो पर रह गया
उम्मीद , वफ़ा, फ़ना और और कीमत ये गिने कुछ यार थे
कल तक सम्हाले रखा आज सासों के हवाले कर गया
एहसास जो रहता था एक ख़ुद क़त्ल होकर मर गया!!
-प्रताप-
...हक अपना मुझपर दिखाया क्यों नहीं...
रूठूँगा मैं तुमसे एक दिन इस बात पे
जब रूठा था मैं तो मनाया क्यों नहीं
कहते थे तुम के करते हो मोहब्बत हमसे
तो दिखाया जब नखरा तो उठाया क्यों नहीं
मुह फेर कर खड़ा था जब अकेले बीरान में
पास बुलाकर सीने से लगाया क्यों नहीं
पकड़ कर तेरा हाथ पूछुंगा मैं तुमसे
हक़ अपना मुझपर दिखाया क्यों नहीं
एक सिरा इस धागे का तुम्हारे पास भी तो था
उलझा था मुझसे तो तुमने सुलझाया क्यों नहीं
हक अपना मुझपर दिखाया क्यों नहीं!!-
कुछ धुंधले हुए ख़याल छोड़ आए उस मोड़ पर
जिस मोड़ से एक राह निकलती है तेरे चौखट की
गुज़रते हुए निहारना कभी तो दिख जाएंगी
यादों से सनी हुई एक मैली सी चिंगारी जिसकी रोशनी में देखा था तुझे
नसों को स्थिर करने वाली ठंड में जो एक लौ ने पूरे बदन को जला दिया
उनकी लपटे प्यासी पड़ी एक बूंद इश्क़ में मिल जाएंगी
उन बकबक की आड़ में चुपके से निहारकर नज़रों को चुराना
हौले हौले से कब्ज़ा कर के दिल पर अपना घर बनाना
हाथों में हाथ लिए दूर तलक बस चलते जाना
उन अंधेरे रास्तों में बीरान पड़ी मिल जाएंगी
हुस्न-ए-दीदार को तड़प के रह जाना
एक तुझे पाने को कई समंदर पार कर जाना
तेरे हाथों के निवाले पर मर जाना
गौर से देखो कभी तो जूठी ज़ज़्बात वहीं मिल जाएंगी
मुद्दतों तक साथ निभाने के वादे सारे
फ़साने सब तेरे दर ब दर निभाने सारे
तेरे बेबुनियाद मुझसे रुख़सत होने के बहाने सारे
ठिठुरती निगाह लिए तेरे घरोंदे के नीचे पड़ी मिल जाएगी
गुज़रते हुए निहारना कभी सुनसान रास्तों पर बेवज़ह सुबह के इंतज़ार में मिल जाएंगी!!
-प्रताप
-
बेवक़्त, बेवज़ह, बेहिसाब मुस्कुरा देता हूँ कभी कभी
दिल के उठते भंवर को फिर सुला देता हूँ कभी कभी
आब-ए-तल्ख़ से मौसम गमगीन सा रहता है
ख़ुद को ख़ुद से मिला देता हूँ कभी कभी
बाज़ारू हो चुकी हैं ज़ज्बात मेरे मंज़र के चौराहे पर
अदाओं पे मैं भी सिक्के लुटा देता हूँ कभी कभी
जब रात के अंधेरे का सुकून पनाह मांगता है आकर
बस यूं ही एक दिया जला देता हूँ कभी कभी
बेवक़्त, बेवज़ह, बेहिसाब मुस्कुरा देता हूँ कभी कभी!!
- प्रताप-
धीरे धीरे शबर को बेशबरी में बिताए हैं हमनें
कभी रातों को जगाकर कभी पलकों को भिगाकर कभी कभी तो ग़म में गोते भी लगाए हैं हमने।
कभी तन्हाइयों के कंकड़ से सुराग भी किए हैं आसमान में उन टूटते तारों की चाहत में ,
जिससे होकर वो मेरे हिस्से में आ गिरे,
कभी कभी उनको सपनों पे सज़ाकर ख़यालों से पकवान भी बनवाए हैं हमने।
अक्सर यूं ही दूर तक टहल आता हूँ उनके यादों की गली सहर के उजाले में,
कभी कभी उनकी मुस्कुराहट के मेले में देर तक गस्त भी लगाए हैं हमनें।
हुस्न-ए-दीदार की महफ़िल में उनके, दावतें भी की है शाही निगाहों से,
कभी तरसती निग़ाह लिए मेले में बच्चे सा, उनके लिए ख़ुद को ललचाए हैं हमनें।
यूँ ही नही सब हार कर बैठा उनसे इस मैदान-ए-जंग में,
सूरत-ए-इश्क़ के हाथों से कत्ल होकर ख़ुद को ही ख़ुद से जलाए है हमनें
धीरे धीरे शबर को बेशबरी से बिताए है हमनें!!
-प्रताप-
रिश्ते नाज़ुक होते हैं कहीं हौले से छूटकर फिसल न जाए
ज़ुबा जो एक अल्फ़ाज़ लिए बैठा है कह दे कहीं वक़्त ये निकल न जाए
टकटकी लगाए चाँद में महबूब को तलासते बैठा है
कहीं कोई अमावस उसको निगल न जाए
बर्फ़ सी चट्टानें बनाता है हर रोज़ सपनों में चाहत के
गुमसुम की गरमाहट से क़तरा क़तरा पिघल न जाए
हौले हौले नाज़ुक पलकों से पिरोना चाहत की मालाएं अपनी
कहीं उलझ कर बातों में मोती टूटकर बिखर न जाएं
रिश्ते नाज़ुक होते हैं हौले से छूटकर फिसल न जाएं!!
-प्रताप
-
कुछ अजीब सी बचकानी हरकतें होती हैं मोहब्बत की,
चुप कराने को भी वही चाहिए जो रुलाकर गया हो!!
-प्रताप-
बना रहा था रेत के ख़यालात उनके लिए
और फिर बारिश आ गई
रखे थे कुछ आंसुओं के टुकड़े सूखने को
कुछ ग़म भी बिछाए थे धूप में
निकला ही था उनकी यादों को मिटाने
और फिर बारिश आ गई
न छत न घरोंदा न दरी न बिछौना
खुले आसमान के नीचे रखा हुआ सिरहोना
सावन के इश्क़ सा एक दिया जलाया था अभी
और फिर बारिश आ गई
-प्रताप-