शांति के ठेकेदारों, देखो!
कट्टरपंथ के यारों, देखो!
टेक लगा कर बैठा कैसे
'शांतिदूत', मक्कारों देखो!
परिभाषा तक गढ़ न सके,
समाधान की आशा क्या?
घुला हुआ है त्रास गगन में,
जीवन की अभिलाषा क्या?
आज जला है घर मेरा तो,
ज्वाला तुम तक भी जाएगी।
बंदूक की नोक पर बुद्ध है आज
कल सबकी बारी आएगी।-
चलऽ उठावऽ झोरा मँगरू, परधानी अब बीत गइल
पाँच बरस पर आइल रहलें, सब छोड़ छाड़ शिवकाशी से
दउरल-भागल छोटको भैवा, आइल टिकट कटा के झाँसी से
परधानी के चस्का ले डूबल, खीरा के ढेंपी तीत भइल
चलऽ उठावऽ झोरा मँगरू, परधानी अब बीत गइल
सुक्खू चाचा सरपंच रहें जब, आवास क पैसा खाय गए
मनरेगा में बन्हल कमीसन, सौचालय भी गटकाय गए
अगले साल क बजट देख, फिर परधानी से प्रीत भइल
चलऽ उठावऽ झोरा मँगरू, परधानी अब बीत गइल
चाचा मूछ पर ताव धरे, फिर लड़त रहें दमदारी से
रुपया पैसा साया साड़ी, दारू मुर्गा रंगदारी से
बनल बनावल माहौल रहल, न जाने कब विपरीत भइल
चलऽ उठावऽ झोरा मँगरू, परधानी अब बीत गइल
ओह टोला के नौधा लइका, पिछले साल कोरोना में
रासन पानी पूछत घूमल, गाँव के कोना कोना में
सुक्खू चाचा ताकत रहि गइलें, ऊ जनता के मन के जीत गइल
चलऽ उठावऽ झोरा मँगरू, परधानी अब बीत गइल-
हे बसंत अब आ जाओ,
ओस छाँट कर क्षिति पर, पीताम्बर बन छा जाओ
हे बसंत अब आ जाओ …
अम्बरमणि का यश फैले, सुमनों का मीठा रस फैले
हरियाली छितरा जाओ, हे बसंत अब आ जाओ.…
हर मधुप को मकरंद मिले, कवियों को नव छंद मिले
नूतनता बिखरा जाओ, हे बसंत अब आ जाओ…
हो अंत शिशिर का संत्रास, कोकिल बन हे मधुमास
मधुरिम गीत सुना जाओ, हे बसंत अब आ जाओ…
फुलवारी सारी अलसाई, रसहीन खड़ी है अमराई
कोंपल नए उगा जाओ, हे बसंत अब आ जाओ…-
बेचैन घूमता हूँ इश्क़ की गलियों में
होंठों से छू कर कलंदर कर दो
थाम लो हाथ मेरे रूह को राहत पहुँचे
तपते जून को दिसम्बर कर दो
सूख रही है क्यारी दिल के फूलों की
प्यार बरसाकर इन्हें तर कर दो
इश्क़ का कुंभक अधूरा है तुम्हारे बगैर
कभी छू लो और समंदर कर दो
यार मेरे कहते हैं अधूरा ही मरेगा तू
करीब बैठ के सिकंदर कर दो
सुपुर्द-ए-ख़ाक न हो पाक इश्क़ मेरा
उठा लो गर्त से अंबर कर दो-
बेसन फेंटत जग मरी,
हलुवाई बनी न कोय,
पाँच साल की संविदा,
गर पकौड़ा तलने में होय।-
स्वागत है रघुनंदन, अयोध्या रही पुकार
तरस गईं थीं आँखें, अब स्वप्न हुआ साकार
जुटे उपासक हैं सारे, सियाराम सब के प्यारे
हर्षित है वो देखो, बहती सरयू की धार
नृत्य कर रहे हनुमत, गूँजा है जय जयकार
स्वागत है रघुनंदन…
करें प्रार्थना नर नारी, आ ही जाओ भयहारी
जला दिए हैं दीपक, सजा दिए हर द्वार
खत्म करो प्रतीक्षा, दर्शन दो हे करतार
स्वागत है रघुनंदन…
तरसी अंखियाँ हैं सारी, बने भवन शोभन भारी
प्राणों की दे दी आहुति, पुरखों ने लाख हज़ार
धन्य हो गया चेतन, सफल हुआ अवतार
स्वागत है रघुनंदन…
स्वागत है रघुनंदन, अयोध्या रही पुकार
तरस गईं थीं आँखें, अब स्वप्न हुआ साकार
✍️अतुल कुमार सिंह-
चला बेचने मंगरू आज, बचे खुचे सब खेत
जो थे संचित सदियों से, पुरखों की अमिट निशानी
खटक रहे थे नजरों में, दिखते थे ओढ़े चूनर धानी
फिसल रहे हाथों से पल पल, जैसे फिसले मुट्ठी से रेत
चला बेचने मंगरू आज, बचे खुचे सब खेत…
बैल बेच आया परसों ही, बोला उनका काम नहीं
बैठ जुगाली करते रहते, मंडी में इनका दाम नहीं
रस्सी बेचा घण्टी बेचा, बेचा हाँकने वाला बेंत
चला बेचने मंगरू आज, बचे खुचे सब खेत…
जबसे पैरों पर खड़ा हुआ, बस बातें ऊँची करता है
दादा परदादा के ख़िलाफ़, सबके कानों को भरता है
लेकिन कुटुंब को बेध रहे, अशुभ विनिवेशों के संकेत
चला बेचने मंगरू आज, बचे खुचे सब खेत…
✍️ अतुल कुमार सिंह-
ऐतबार हो तकदीर पर जिनको बाजुओं से बढ़कर
वो फरियादी दैर ओ हरम घूम कर के लौट जाते हैं-
ऐतबार हो तकदीर पर जिनको बाजुओं से बढ़कर
वो फरियादी दैर ओ हरम घूम कर के लौट जाते हैं-
कामयाबी के इमारत में जिनके लगी हर ईंट गैरत की
साज़िशों के थपेड़े बुनियाद चूम कर के लौट जाते हैं-