एक खत पापा के नाम....
मेरे गम को अब कोई बाँटता नहीं है
मैं गलती करूँ तो अब कोई डाँटता नहीं है
कहता नहीं कोई कि बेटे ऐसा नहीं ऐसा करना है तुझे
मुश्किलों को हराकर आगे बढ़ना है तुझे
अब मुझे घर की जिम्मेदारियों का डर सताता है
मुझे इस काम को ऐसे नहीं ऐसा करना है कोई नहीं बताता है
मुझे अभी जिम्मेदारियों की उतनी समझदारी नहीं है
पापा आप आ जाओ ना, इतनी जल्दी भी मेरी बारी नहीं है
याद है मुझे जब मैं पढ़ने को शहर जाता था
शहर पहुँचने के पहले कितने बार तुम्हारा फोन आता था
तुम पूछते थे कि कब तक पहुचेगा बेटा
पहुंच के सबसे पहले रोटी खा लेना
तुझे वहाँ पर मन लगाकर पढ़ना है
हमारी उम्मीदों पे खरा उतरना है
दिये थे कुछ पैसे जो तुमने खर्चों से बचाये थे
सबके सामने हँसके दरवाजे के पीछे आंसू छुपाये थे
बार बार पलटकर देखा अब वो साया नहीं था
अब शहर जाते वक़्त पापा का वो सहारा नहीं था
कैसे आप सबको बताते थे कि अब मेरा बेटा महीने के इतने कमाता है
अब वो पहले की तरह सूखी रोटी नहीं खाता है
मेरी नौकरी की खबर सुनकर आपके चेहरे पे क्या मुस्कान आयी थी
मेरी नौकरी की खबर तुमने सारे मोहल्ले में बताई थी
कितने सालों बाद हमारे घर में खुशियां आयीं थीं
अब मेरी तरक्की में कोई खुश होने वाला नहीं है
किसको फ़ोन करके बताऊ पापा अब कोई सुनने वाला नहीं है
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