Atul Jain   (Atul Jain)
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#love to write and share my thoughts
कुछ अनकहे से शब्द
Joined 17 September 2017


#love to write and share my thoughts
कुछ अनकहे से शब्द
Joined 17 September 2017
13 MAR 2022 AT 23:30

एक खत पापा के नाम....


मेरे गम को अब कोई बाँटता नहीं है
मैं गलती करूँ तो अब कोई डाँटता नहीं है
कहता नहीं कोई कि बेटे ऐसा नहीं ऐसा करना है तुझे
मुश्किलों को हराकर आगे बढ़ना है तुझे
अब मुझे घर की जिम्मेदारियों का डर सताता है
मुझे इस काम को ऐसे नहीं ऐसा करना है कोई नहीं बताता है
मुझे अभी जिम्मेदारियों की उतनी समझदारी नहीं है
पापा आप आ जाओ ना, इतनी जल्दी भी मेरी बारी नहीं है

याद है मुझे जब मैं पढ़ने को शहर जाता था
शहर पहुँचने के पहले कितने बार तुम्हारा फोन आता था
तुम पूछते थे कि कब तक पहुचेगा बेटा
पहुंच के सबसे पहले रोटी खा लेना
तुझे वहाँ पर मन लगाकर पढ़ना है
हमारी उम्मीदों पे खरा उतरना है
दिये थे कुछ पैसे जो तुमने खर्चों से बचाये थे
सबके सामने हँसके दरवाजे के पीछे आंसू छुपाये थे
बार बार पलटकर देखा अब वो साया नहीं था
अब शहर जाते वक़्त पापा का वो सहारा नहीं था

कैसे आप सबको बताते थे कि अब मेरा बेटा महीने के इतने कमाता है
अब वो पहले की तरह सूखी रोटी नहीं खाता है
मेरी नौकरी की खबर सुनकर आपके चेहरे पे क्या मुस्कान आयी थी
मेरी नौकरी की खबर तुमने सारे मोहल्ले में बताई थी
कितने सालों बाद हमारे घर में खुशियां आयीं थीं
अब मेरी तरक्की में कोई खुश होने वाला नहीं है
किसको फ़ोन करके बताऊ पापा अब कोई सुनने वाला नहीं है

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8 DEC 2021 AT 22:39

कुछ खतम होनें को है या फिर शुरुआत है
ये दिसंबर महीने की बस यही तो बात है
पन्ने पलटकर देखूं तो धुंधला सा हो गया है सब कुछ
मुझे आज भी वो बीती जनवरी का कोहरा याद है

पल भर में कैसे गुज़र गया ये वक़्त
सोच के देखो तो कल ही की तो बात है
साथ बैठ के कैसे खिलखिलाये थे किसी शाम में
मुझे आज भी वो खुशियों के रंगों में सजी होली याद है

फिर कुछ वक़्त को सुनसान सा हो गया था ये शहर
शायद ये अप्रैल मई की बात है
कैसे गुज़रे थे वो ठहरे हुये से कुछ महीने
मुझे आज भी खामोशियों की होती वो गुफ्तगू याद है

बारिश के पानी में बह गया फिर वो वक़्त
कागज की नाव में बहते कुछ सपनों का साथ है
जिन लम्हों में जिया था कुछ बचपन के लम्हों को
मुझे आज भी वो पहली बरसात याद है

कहीं दीप जलें कहीं फुलझड़ी से रोशन हुआ था समां
ये खुशियों से जगमगाती दीवाली की बात है
फिर हवायें हुई थी सर्द और बदला था मौसम
मुझे आज भी वो अलाव किनारे बैठे जाड़े की रात याद है

ज़िन्दगी का पलट गया है एक और पन्ना
अब आगे रखी फिर से एक खुली किताब है
लिख लो इसे अपने मन के मुताबिक
क्योंकि ये अंत नहीं ये तो शुरुआत है

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26 DEC 2020 AT 23:28

आज डायरी के पुराने पन्नों पर कुछ मुस्कुराते हुये पल देखे मैनें
फैली हुयी स्याही से डगमगाते बीते कल देखे मैनें
कुछ शब्दों से तो कुछ तस्वीरें ही झलक आयीं थी
जब ठहरे हुये लम्हों में ख्वाबों के महल देखे मैनें

कुछ लम्हे जगमगाये तो कहीं पैर भी डगमगाये थे
जिन्हें संभालने कभी खुद के हौसले ही काम आये थे
कभी टूटा कभी बिखरा, गिरते संभलते मुश्किलों के हल देखे मैनें
डायरी के पुराने पन्नों पर कुछ मुस्कुराते हुये पल देखे मैनें

एक मुड़े हुये से पन्ने पर कुछ सपने रूठे बैठे थे
थी सच होने की तलब उन्हें स्याही से छूटे बैठे थे
फिर आगे के कुछ पन्नों पर होते कुछ को अमल देखे मैंने
डायरी के पुराने पन्नों पर कुछ मुस्कुराते हुये पल देखे मैनें

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18 JUL 2020 AT 19:57

कितने ख्याल चल रहे होते है ना मन में
ढलते सूरज को देखते हुये
समन्दर की लहरों में बहते हुये
खामोशी से बारिश की बूंदों को सुनते हुये
आसमान में चाँद को निहारते हुये
या पहाड़ से नीचे की दुनिया को देखते हुये

दरअसल ये वही वक़्त होता है
जब हम खुद के ही साथ होते है
जब हम खुद से ही बात कर रहे होते है
ये वही वक़्त होता है
जब हम इस जहां में रहते हुये भी इस जहां से दूर होते है
खुद के बहुत करीब और ख्यालों में मगरूर होते है

इस वक़्त को खुद से दूर मत होने दो
इन ख्वाहिशों के सफर को बीच राह में ही मत सोने दो
उठाओ कदम इनके साथ में ही चलने का
हर बार की तरह इस बार भी इनको मत खोने दो
इनको भी सच होने दो
इनको भी सच होने दो

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15 JUL 2020 AT 23:12

खुद से ही अनसुलझे से सवाल किये बैठा हूँ
कुछ पलों में ही सदियाँ जिये बैठा हूँ
कहाँ भटकूँ मैं खुद को तलाशने के लिये
खुद के अंदर ही एक शहर लिये बैठा हूँ

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14 JUL 2020 AT 23:49

क्यों ना शुक्रगुज़ार रहूँ मैं ज़िंदगी का
जो दिया उसने वो भी कम थोड़ी है
इशारे से दिखा देता है हर बार नया रास्ता कोई
उसने वक़्त की राहों को मोड़ा थोड़ी है
फ़क़त समझना इतना कि बस खुद का साथ ना छूटे कभी
वरना मंजिल ने भी तुम्हारा साथ छोड़ा थोड़ी है

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14 JUN 2020 AT 21:31

न जाने कौन सी उलझन को दिल में पाल रहा होगा
लंबे वक्त से खुद को ऐसे ही संभाल रहा होगा
किया फैसला और सो गया चैन की नींद ही वो
शायद रोज़ाना ही वो इस बात को टाल रहा होगा

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13 JUN 2020 AT 3:41

मन में उथल-पुथल सी मची हुयी है
समझ नहीं आ रहा कि क्या सही और क्या गलत
जैसे किनारे पर पहुँचना वाला हूँ और कश्ती ही साथ छोड़ने लगे
खुद से ही अपनी राह ये मोड़ने लगे
और बाद में पता चले कि कश्ती को हवाओं ने नहीं
मन में चल रहे विचारों के बबंडर ने ही मोड़ा हो
और कसूरवार वक़्त को बना दिया हो हमनें
और खुद नें ही कश्ती का साथ छोड़ा हो

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7 JUN 2020 AT 3:44

खुद की ही तलाश में
न जाने कब मैं जहां पाऊंगा

खुद से ही लड़ रहा हूं मैं
शायद जीत भी गया तो हार ही जाऊंगा

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4 MAY 2020 AT 5:22

फिर कहीं ना पहुँचा ये ख्यालों का सफर
थक गया ये भी भागते भागते
कुछ इस तरह से सुबह हुयीं मेरी
एक और रात बसर हुयीं जागते जागते

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