ना कोई डोर है,
ना तुम पतंग,
ना कोई काबु है मेरा तुझपे,
ना तू बेसब्र
हर्फ दर हर्फ सम्भली हूँ मैं,
थामना तो चाहती भी हूँ,
मगर कहने से डरती भी हूँ मैं,
तू जो सामने से थामे डोर मेरी,
खीचे मुझे यु पतंग सा,
लपीटी जाऊँ तेरी बाँहों में मैं,
जैसे रेशमी धागे की चरखी की तरह,
यूं तो आज़ाद पंछी सी हूँ मैं,
मगर कैद कर ले तू मुझे अपनी निगाहों में कुछ इस तरह ,
बस गिरा ना देना मुझे, यूं किसी पलक पर पड़े आँसू की तरह |
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