आज उनकी भी होली हुई जिन्हें
ईद मनानी होती है,
आज उनके नन्हें हाथों ने भी रंग छुए
जो बस हरे रंग में परिभाषित किये जाते हैं,
आज उन्होंने भी गुजिया जानी
जो सेवइयों में जायके घोलते हैं,
आज उनके हाथों से भी गुलाल उड़े
जो रोजे के इफ्तारी से बंधे हैं,
वो नन्हें नन्हें बच्चे क्या जाने मजहब कि
ऊंची ऊंची दीवारें,
उनके लिये तो होली भी खुशी लायी जैसे
उमंग लाती है ईद कि नमाज़ी कतारें।
देखना हो किसी को पवित्रता और सौहार्द
तो आओ उस पाठशाला में देखो
जहां आज मैंने देखी बस इंसानियत और खुशी।
उनकी मासूम सी हंसी नहीं जानती थी कि
सदियों से बंट रहा है इंसान क्योंकि
वो बच्चे थे निर्दोष,निश्छल,निर्भीक,
तोड़ दिया उन्होंने ये विचार कि खुशियां किसी एक कि नहीं होतीं
खुशियां सबकी साझा होती हैं, रंगों को धर्म मे मत बांटों,
रंग तो सबके हैं,सबको रंग ही जायेंगे।
आज होली उनकी भी हुई क्योंकि वो पवित्र थे,
वो मन के सच्चे प्यारे बच्चे थे।
देख के उनको लगा के 'आस्था'
ये दुनिया और खूबसूरत होती जो सबमें बचपना
बना रहता के कोई संग्राम,कोई द्वेष न होता जो मन
में निश्चलपना रहता।
खुशी हुई मुझे कि मंदिरों से भी ज्यादा
सकारात्मक था वो ज्ञान का मंदिर,
के कहीं न कहीं ये देख ईश्वर भी खुश हुए होंगे कि
उसके बनाये बंदे सब एक होकर जिये,
होली के रंग में रमजान के रोजे घुले और खुश हुए।-
सजे हैं सब शहर शहर ,
सज उठे हैं सब घर घर,
रंगों से भर उठा घर पर उसमें वो चमक नहीं,
चारों ओर है रोशनी पर उनमें वो
दमक नहीं,
उमंग के शोर में डूबा है जग
पर उन आवाज़ों में वो खनक नहीं,
तमाम कर्म हैं पर सबके सब विरत से हैं,
सब कुछ हो रहा है जीवन गतिमान है
पर फिर भी वो उत्साह नहीं है,
साँसों में वो प्रवाह नहीं है,
रंग रोगन हुआ वो घर आज भी
थोड़ा स्तब्ध ही है कि
उसको सजाने वाली,जाने कितनी दिवालियाँ
उसमें रोशन कर जाने वाली,वो पायलों
से कोना कोना नाप हर कोने में
रोशनी बिखेरती हुई,हँसती हुई,
सजी सँवरी सी पूजा करती हुई
माँ जो नहीं हैं अब,
उनकी अनुपस्थिति में घर ये थोड़ा
मायूस है,थोड़ा सा उदास है
कि पहली ऐसी दीवाली है कि
इस घर कि आत्मा नहीं उसके पास है।
बस प्रार्थनाओं के साथ होगी ये दीवाली माँ के बिना के
वो जहाँ भी हैं सदा खुश हों,इतना
सुखी हों कि हर ओर वो वहाँ भी हँसती,
मुस्कुराती सुकून में रहें और यही हमारी दीवाली कि पूजा होगी कि माँ हों हर जगह हममें
आशीर्वाद सी सदा रोशन उनके ही इस घर में,हमारे दिलों में,सोच में,कर्म में,हर त्योहार में माँ हों बस माँ हों...-
सपने चंचल होते हैं,स्निग्ध होते हैं,
अक्सर फिसल जाते हैं आंखों कि अलगनी से,
सपने फिसल के कहीं और ठौर पा लेते हैं पर
छोड़ जाते हैं अपने पीछे
बस कसक,टीस,वेदनाएं।
धूमिल कर जाते हैं नैनों
कि उम्मीद,उमंग और आशाएं।
कभी सपने चकनाचूर होते हैं
परिस्थितियों कि कठोर फर्श पे गिर कर,
तो कभी उनमें दरारें पड़ती हैं
औरों कि इच्छाओं को स्वीकृति देकर,
टूटे सपने,फिसले सपने छोड़ जाते हैं
अपनी मृत देह मन के सीले कोनों में,
और आजीवन मन अपने ही
उन कोनों से भागता रहता है,
मुस्कुराते हुए जीवन के ढंग को
स्वीकार करते हुए फिर
उनका सामना करने से डरता है,
कि कहीं टूटे सपनों कि तपती
अग्नि मन को ही जला न दे,
कि कहीं जो चाहा वो कर न सके
ये बासी पीड़ा फिर रुला न दे।
मानव जीवन भर ढोता है मृत
सपनों कि अर्थी अपने मन के कांधो पर,
पर किसी से कह नहीं सकता और
इसी तरह टिके हैं कई समंदर से मन
टीस कि खामोश बांधों पर।
कौन कहता है कि शोर,दर्द,मृत्यु
सिर्फ बाहरी दुनिया में ही हैं,
कभी मनुष्यों के हृदय भी झाड़ पोंछ
के देखो,जाने कितने सपनों के मृत्यु के
रक्तरंजित निशान पड़े होते हैं।
अधूरे सपने उड़ जाते हैं अक्सर
पर उनके खो जाने,सुषुप्त हो जाने के
दर्द संसार कि पीड़ाओं में बड़े होते हैं- ©आस्था Saroj-
ये बारिशें बारिशें नहीं हैं
ये आर्तनाद हैं,मुश्किलें हैं,
विपदा हैं,
दुःख हैं, सकंट हैं, असहजता हैं
उनके लिये जिनके छप्परों वाले घर
ने अभी भी सीमेंट और ईंटों
का स्वाद नहीं ओढ़ा है,
जिनकी जीविका सड़क किनारे
खुले आकाश के तले ठेले पर ग्राहक प्रतिक्षायें जीती है,
ये उनके साथ आकाश का छल है,
ये बारिशें वो उदार बारिशें नहीं हैं
जिनसे माटी कि सोंधी महक उठती है,
ये सब बह जाने कि कठिन सिहरन है,
ये बारिशें उनके साथ निर्मम है
जो सड़कों पर मजदूरी करके जीवन
के संघर्ष से रोज जीतने कि जिद्दोजहद करते हैं,
ये बारिशें बूंदों का प्रहार हैं,
हर उस जीवन पर,जिसके लम्हें
दो वक्त कि रोटी कि व्यवस्था में ही खर्च होते हैं,
ये भय है उन ज़िन्दगियों का जिनके
हिस्से जीवन ही थोड़ा कम आया है,
ये बारिशें धरती से आकाश के नाराज़गी
वाले युद्ध का उदघोष हैं,
ये बारिशें मनुष्यों के लोभ का
प्रतिफल हैं बस विडंबना ये है कि
जिन्होंने प्रकृति के साथ खिलवाड़ किया वो अपने
महलों में सकुशल हैं और सजा उन्हें मिल
रही जो सिर्फ सांस भर जितना ही जी पाए...-
जाने कितनी खिलखिलाहटें उदास
रहीं पर किसी ने न जानी,
जाने कितने आसूं खुशी
के थे पर किसी ने बात ये न मानी,
जाने कितने बादल धरती
कि मलिनता को धोते रहे,
जाने कितने मन मुस्कानों
के साथ बस नेपथ्य से ही रोते रहे,
वो बूंदे जो इकट्ठा हुईं
बारिशों के सालाना जलसे में,
उन्हें ज्ञात था कि धरा के
सीने से टकरा के लुप्त हो जाना है,
जाने कितना वो बूंदे भी
चुपके चुपके रोयीं पर ये सब
किसी ने न देखी न जानी,
देखो न 'आस्था' से तुम के
जीवन के हर कण में
नियति कि ही है मनमानी,
जाने कितना कुछ है जो
अस्तित्व में तो है पर वो
उपेक्षित किया जाता रहा है सदियों से
ताकि हम मना सकें उन
आडम्बरों के झूठे सुख जो
सिर्फ कहने भर को सुख हैं।
हम जो जीना चाहते हैं वो नहीं
जो हम जी रहे वो हैं वो ही
तो है अनिश्चित से जीवन कि
छोटी सी लंबे संघर्षों वाली एक रहस्यमयी कहानी...-कवितांश by © आस्था सरोज-
निर्बन्ध हैं,निर्ग्रन्थ हैं ईश्वर
पर ईश्वर बांधते हैं मानवों को
प्रारब्ध से,कर्म से,
प्रारंभ से,अंत से,
प्रेम से और मोह से,
जीवन से,मृत्यु से,
आशाओं से,उम्मीदों से,
दुःखों के सख्त गोंद से,
और सुखों कि मृग मरीचिका से,
ईश्वर स्वयं वर्जनाओं से मुक्त हैं
पर स्वयं एक वर्जना हैं मनुष्यों के लिये,
शर्तों में आते हैं ईश्वर,
भक्ति कि, प्रार्थनाओं कि,
आस्थाओं कि शर्तें,
गिरहों में परिबद्ध इंसान
बस प्रार्थनाएं करता है भौतिक सुखों कि
पर वो नहीं जानता कि वो स्वयं
को और जकड़ रहा है,
ईश्वर ने इसी जकड़न के
कोटरों में दुःख रखा है और
दुःख बेहद ही आत्मीय होते हैं,
किसी से भी रिश्ता बना लेते हैं,
इसीलिए दुःख हैं क्योंकि हमें
वास्तविक प्रार्थनाएं करनी नहीं आयीं,
इसीलिये ईश्वर हमारे उतने नहीं हो सके
क्योंकि हमें ईश्वर से अधिक अपनी
व्यथाएं ही दीं दिखाईं।-
इच्छाएं
कभी खत्म नहीं होती
इच्छाएं तब भी कहीं न कहीं
बची रह जाती हैं ब्रम्हांड में
जब हम भी न रह जाएं,
ये जन्म से लेकर
मृत्यु तक हर समय
कुछ न कुछ रह रहती है हैं,
अधिकांशतः ये
अधूरी रह जाने को
शापित हैं,
एक जीवनकाल में
समस्त इच्छाएं पूर्ण होना
उतना ही कठिन है
जितना दुरूह बादल के
शास्वत पर्वत बनाना...
इच्छाएं हैं तभी तो दुखों
को जीवन मिला हुआ है।
कोई भी इच्छा न रहे इस बात कि अभिलाषा
भी इच्छा ही तो है...
इच्छाएं रक्तबीज सी उगती रहती हैं क्योंकि
इच्छाएं वो अश्वत्थामा हैं
जो जीवित रह जाने
को अभिशप्त हैं...तब भी जब जीवन न रह जाये...-
ये संसार समाप्तियों का प्रयोजन है,
एक दिन सब अंत
हो जाने का रहस्यमयी उपक्रम है,
इस जग को समाप्ति
हेतु ही आरम्भ मिला है,
एक दिन सब खत्म हो जाना
यहाँ कि नियति में घुला है,
कितने भी जतन करो
होती है यहाँ रोज
समाप्ति रिश्तों में बसे इंसानों की,
समाप्ति आत्मा से ढके शरीर की,
समाप्ति कर्मों में लिप्त भावों की,
समाप्ति सुंदर सपनों की,
समाप्ति भौतिकताओं की,
समाप्ति विश्वास में छुपे आस की,
समाप्ति यौवन के अहसास की,
समाप्ति स्नेह के प्रयास की,
समाप्ति उन रिश्तों की जिन्होंने तुम्हें सुख दिया,
ये संसार प्रारम्भ हुआ कि एक दिन
इसे समाप्ति को जन्म देना है,
कुछ भी कभी शाष्वत नहीं रह जायेगा,
यहाँ बस नादान अतिथि सा रहना है,
सब समाप्त हो जाएगा सिवा इच्छाओं के
क्योंकि इच्छाएं कभी नष्ट नहीं हो पातीं
कहीं न कहीं ब्रम्हांड में बची रह जाती हैं
कोई इच्छा न रह जाये
इस बात कि आकांक्षा ही इच्छा बनकर
शेष रह जाती है
पर एक दिन वो भी छूट जाती हैं कि समय निर्मम है उसे समाप्तियों का मनोरंजन प्रिय है।-
माँ तुम थीं तो मैं था
अब मैं नहीं हूं
कोई और है,
जिसे तुम्हारे बिना
जीना आता नहीं,
और मरना तुमने सिखाया ही नहीं,
माँ तुम थीं
तो मैं सच में जीवंत सा मैं ही था
अब मैं कोई और हूँ,
तुम थीं तो जिंदगी में
जीवन था,
जो हर पल में उत्साह था,
दुःख में भी कि कोई हो
न हो कम से कम तुम तो हो बेशर्त,
अथाह परवाह और प्रेम के साथ तुम हो,
ये सोच के सदा खुश था,
तुम थीं तो मैं जी भर जीता था,
बेहद निश्चिन्त सुकून था,
अब जो मैं हूँ तुम्हारे बिना माँ
वो जो जी रहा है कि
बस साँस आ रही और
बस इसलिए
कि तुम चाहतीं थीं मेरी लम्बी उम्र
और
मेरी सलामती हमेशा से...-