Asim Ragini Mathur   (अज़ीम_the cyber poet©)
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Joined 28 April 2017

7 AUG AT 16:39

ज़िद से हुए बर्बाद कभी,
ज़िद से हुए आबाद कभी।
कुछ न बदला ज़माने में,
ज़िद्दी हैं हालात सभी।

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4 AUG AT 11:50

ज़िद्दी सा मन है,
ये कहां पावन है?
ख्वाइशों की बारिशों में भीगा,
डूबा जैसे दलदल है।

ज़िद्दी सा मन है,
न जाने क्या हलचल है??
पाने की चाह में जल–थल है,
खो जाने का जैसे एक भरम है।

ज़िद में, मन ये,
एक गहरा सा जंगल है।

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4 AUG AT 9:27

ज़िद है, तो ज़द में आते हैं,
वरना हमें सब भूल जाते हैं,
बात मतलब परस्ती की नहीं,
कुछ लोग, ऐसे ही रिश्ते निभाते हैं।

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4 AUG AT 8:46

ज़िद जीत की है,
हार का ज़र्रा भी कबूल नहीं,
कर रहें हैं जो बस जीत के खातिर,
हार की सोच में डूबे, वक़्त फ़िज़ूल नहीं।

पर हार न हो, तो जीत क्या है?
हरहाल में जीत की ये ज़िद क्या है?

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4 AUG AT 8:28

सावन भी अब पहले सा न रहा,
न भादौ में बारिश की उम्मीद है।

यूं बिगड़ा है कुदरत को।

सब कुछ अपने काबू में करने की;
इंसान की अजीब ज़िद है।

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28 JUL AT 20:55

खिले खिले से चाँद ने, बुझी बुझी सी रात से,
ये था कहा कभी, बात ही बात में।
तेरे बिन न मैं रहूं, मेरे बिन तू नहीं,
रात ने कहा यही, तू नहीं तो मैं नहीं।

सुन कर बात ये, तारे सब हस पड़े।
सूरज संग मिल कर वो, चाँद से लड़ पड़े।
तभी से तो ये बात हुई, हर माह वो आघात हुई,
तन्हा तन्हा सी बीत रही, अमावस सी वो रात हुई।

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28 JUL AT 20:46

खिल रहीं है मुस्कुराहट,
सकून की है एक आहट।

परेशान सा है ज़िंदगी का राक़िम,
कैसे बन गया, मैं ख़ुद का हाकिम?

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28 JUL AT 10:17

हँसी है एक, आँसू कई है;
खिलखिलाती रहे ज़िंदगी,
वजह नहीं है।

फ़िर भी है एक मुस्कुराहट लब पर;
अश्कों के लिए वक़्त के दरिया में अब,
जगह नहीं है।

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28 JUL AT 10:07

खिला हुआ है मंज़र सारा,
हरी सी चादर कुदरत ने पहनी;

मुरझाई सी है ज़िंदगी सारी,
आँखों में नदिया है ठहरी।

वक़्त है, बारिश सा,
और मयस्सर सिर्फ़ एक घड़ी।

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28 JUL AT 9:54

खिलखिलाती, मुस्कुराती,
गुदगुदाती, चंचल सी है;

लड़ती, हारती, बिलखती,
गिड़गिड़ाती, दंगल सी है;

जिंदगी है, जल थल सी है।

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