Asim Ragini Mathur   (अज़ीम_the cyber poet©)
143 Followers · 92 Following

Joined 28 April 2017

29 APR AT 11:07

वो कहानियों का सौदागर था,
ज़िंदगी की पोटली में से,
एक कहानी तुम्हें बेच कर,
किस्सों के चिल्लर ले जाता था,
और यही किस्से उसकी अगली कहानी थे।
कुछ ऐसे उसने दास्तानों सी दौलत कमाई थी

फ़िर एक रोज़,
किस्से, कहानी और दास्तां सब बेच कर।
वो दफ़्तर की मेज़ पर बैठ गया।

-


29 APR AT 8:52

वक़्त की सतह पर,
वाकियो की लहर उठी,
किस्सों को किनारा मिला,
कहानी सा दरिया बहने लगा।

आओ हम तुम;
इस दरिया को समंदर से मिलाए;
एक मोती सा लम्हा,
दास्तां से भी बड़े समंदर से चुराए।

चलो,
नई एक कहानी बनाए।

-


29 APR AT 8:15

किस्सों का ऊन ले कर
कहानियों का स्वेटर बनाया था,
ग़म के जाड़ों में,
तुम्हें हमने सुनाया था।

जो जो चढ़ा मौसम,
हमने, ऊन को हटा दिया।
कहानियां भी बदल जाती हैं,
वक़्त के साथ।

-


28 APR AT 23:35

किस्सों की कहानियां,
कहानियों से बने किस्से।
आएंगे ये कुछ तुम्हारे,
कुछ हमारे हिस्से।

अधूरी कहानी, अधूरे किस्से,
बनते, बिगड़ते, और फ़िर बनते रिश्ते।

-


28 APR AT 23:01

जुड़ी हुई है सभी कहानियाँ,
एक कहानी से निकले कई किस्से,
कई किस्से मिल कर बने कहानी,

कहानियों के जाल से बनी दास्तां।
और जुड़ कर सभी बनी....

एक ज़िंदगी।

-


21 APR AT 17:14

ज़र्द सी शाखें, बढ़ा रहीं है उंगलियां, टहनियों सी,
चाह उनकी, सब्ज़ हो, आबाद होना है।

तल्ख़ सी बहती लू, भाग रही है,
चाह उसकी, सबा में तब्दील हो जाना है।

ये मौसम है, इंसान सा,
इसकी फितरत, बदल जाना है।

-


21 APR AT 10:12

जल जल कर मैदानों ने,
राख़ यूं उड़ाई है।
था सब्ज़ जो मंज़र कभी,
ज़र्दी उस पर छाई है।

सियाह से मज़ारे' सारे,
बड़ी बेरुखी सी पुरवाई है।
है धुआं ये ज़रूरी मगर,
देख इसे उदासी छाई है।

-


21 APR AT 9:58

उसे है उम्मीद, सब्ज़ मैदानों की,
पर हिस्से उसके, ज़र्द चट्टानें आई।
उसे है उम्मीद, गुलाबी नसीम की,
पर हिस्से उसके, बिसाँद ही आई।

ख़ाली हाथ था वो,
वहम ही थी उसकी कमाई।

-


21 APR AT 9:45

टहनियों पर आवाज़ करते गुलमोहर,
दर्द से सुर्ख होते शाखों पर लगे पलाश,
बाद–ए–सबा की आस भी न हो,
तैश में,
दरख़्त भी अपने पत्तों विदा कर देता है।

इस वहम में,
की बहार फ़िर सब सब्ज़ कर देगा।

-


21 APR AT 9:21

ख़त्म हो गई है रसद अब,
इन शाखों की;
पत्तों के रंग हो गए हैं ज़र्द से,
एक हल्का झोंका वक़्त का,
इस दरख़्त को मिटा देगा।

पर न जाने कैसा ज़िद्दी है;
हर मौसम के बाद फ़िर उठ जाता है,
सब्ज़ हो जाता है।

कुछ कुछ हम इंसान सा ही है, ये।

-


Fetching Asim Ragini Mathur Quotes