सियाह सा है आसमां सारा,
सियाह है मंज़र ये अभी,
कोई दर्द ज़ाहिर हुआ है,
किसी बादल का कहीं,
भीगती सी ज़मीन ने कहा है,
ग़मगीन फिज़ा को यही,
इन बारिशों से भर रही है,
ये दरिया कितनी ग़म-नसीब।
तल्ख़ ना हो तू, इतना कर यक़ीन,
तन्हा ही जीतना है, ज़िंदगी–ए–अज़ीम-
अपने ग़म को अपनो से छुपाने लगा हूँ मैं,
फ़रेब को हक़ीक़त बताने लगा हूँ मैं,
बिक नहीं रहा मेरा सच ज़माने के झूठे बाज़ारों में,
अब तो सच को भी झूठ बताने लगा हूँ मैं।
न ज़ाहिर हो मेरी निगाहों से कोई तक़लीफ मेरी,
इसलिए बारिश में इन पलकों को भिगाने लगा हूँ मैं।-
उफनती सी फिज़ाओं की साज़िश है,
उलझे हुए बादलों की ख्वाहिश है;
तड़प रही ज़मीन की गुज़ारिश है;
गीत गुनगुना रही, ये जो बारिश है।-
कैसी है ये अदाकारी फिज़ा की,
बादलों को जो रिझा रही है,
सकून की बौछार लिए, बारिश ये,
तकलीफ़ की धूप को हटा रही है।-
फिज़ा की महक है सौंधी सी,
आवाज़ों में पत्तों की सरसराहट,
अब्र की अठखेलियां धूप से,
मौसम ने अपनी अदा यूं ही नहीं बदली है।
बारिशों के आने से,
दिल की धड़कन भी बदली है।-
रास्तों की ख़ामोशी को महसूस करो,
हवा जो ज़ुल्फो से उलझ जाए,
गाड़ी के आगे जाने से, आवाज़ का पीछे होना।
रुके हुए रास्तों पर,
ख़ामोशी की आवाज़ है।
शोर तो चलते हुए लोगों का है।-
ख़ामोशी आँखों में भरी हुई थी,
बोला तो लब आज़ाद हुए,
ज़द में कोई हो, तो आवाज़ बन जाती है।
ख़ामोशी है, तो आवाज़ होगी।
कैद है, तो आज़ाद होंगे।
ख़ामोशी ही तो आवाज़ है।-
काग़ज़ खामोश, कलम ख़ामोश
स्याही सी उतर आई,
लफ़्ज़ की आवाज़ ख़ामोश।
शोर बस ज़हन में है।
यक़ीन बस वहम में है।
ये ख़ामोशी, कोहराम सी है।-
ख़ामोशी बहती है फिज़ा में,
कि जैसे है कोई बात ज़हन में,
मिसरे ख़त्म हो रहें हो नज़्म में,
और चल रहें हो हम एक भरम में।
आवाज़ तो रहती है ख़िज़ा में,
ख़ामोशी ही बहती है फिज़ा में।-
ख़ामोश हैं अल्फ़ाज़,
छुपाए न जाने कितने राज़।
ये कोई तो बताए की कहानियां कब ख़त्म होंगी।
एक लफ़्ज़ जवाब का।
एक लफ़्ज़ सवाल का।
और एक मफ़्हूम का।-