सायद उसे हंसी आजाये क्योंकि
मैं आज भी नहीं चाहता की
वो मेरी वजह से रोए।-
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सूखी कलम से तेरे भीगे होंठ लिखे हैं...
कसम है तुझे वो सितम न ढाए जो क़िस्मत ने लिखे है,
हां! हां! माना हम नही होंगे तेरे काबिल...
पर चाहत के काबिल तो तुभी नही ये तो हम लिखे हैं।-
बयां दर्द-ए-मोहब्बत करती हैं...
मोहब्बत से कितने ज़ख्म खाए...
ये सब अयां करती हैं,
जहर_ए _खंजर अब ये हुई...
सब को ये अब तबाह करती हैं।-
वो कहते है तेरे हम तो क्या ही लगते है...
क्यों रूठे को मनाओगे क्यों...मनाके रूठोगे,
जरा उसको तो समझाओं मेरी दुनियां में ही वो है...
अधूरी है ये दुनिया जब तक वो इसे अपनी ही ना माने।-
ऐसी बात क्या हुवी जो हर बार रूठते हो...
मनाते हुए भी क्या कहूं जो सौ बार रूठते हो,
बस कहते हो की गलती नहीं तुम्हारी कोई...
फिर हर बार सजा मुझको ही क्यों यूं रूठ देते हो।-
अब तुमको क्या बताए मोहब्बत है के क्या है?
तुम तो रहो अपनी उसी ख्वाबों की दुनिया में
हमको तो अब किस ने हक़ीक़त अपनी बनाई है
कहे भी तो अब कैसे मोहब्बत लौट आई है
अब तुमको क्या बताए मोहब्बत है के क्या है?-
के तेरे हर एक ज़ुल्म की,
सामने होके भी जब हमें न देखा...
के हद तो तब हुवी तेरे सितम की,
लहू बनके हिजर का ज़हर दौड़ पड़ा बदन में...
के इसी तरह रोते_रोते सुबह से शाम हुवी तेरे सनम की
इजहार_ए_मुहब्बत ना सही नज़र उठाके तो देख
के ये जिंदगी यूंही तमाम हुवी तेरे मजलूम की।-
तेरे आब-ए-तर ज़िश्म की वो ताजगी
मेरे गर्म सांसों की वो रवानगी,
उफ्फ! कुर्बत ने क्या ख़ूब ज़ुल्म किया...
तेरे-मेरे हर शिक्वें को पल में दफ़न किया।-
हां! वो पहली मुलाक़ात थी
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पहली दफा कलम उठाए नज़ाकत से कुछ लिख आई
लगा था अपनी क़िस्मत में जैसे वो मुझे लिख आई
आंखे उठी पलके झुकी चस्मे से जब नज़र छुपाई
लबों की वो हल्की सी मुस्कान जैसे दिल में उतर आई
हां। वो पहली मुलाक़ात अब भी ख्वाबों में नजर आई
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