तारीख़ ने मुक़म्मल किया था जिसे तारीख़ में
उस शख़्श को "तारीख़" से मिटाया जा रहा है....
"ईश्वर अल्लाह तेरो नाम"
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के ख़्वाहिश हो सुलझाने की
और ये उम्र गुजर जाए..
फलाने
जिंदगी यही है के जिंदा हूँ मै
मौत वही होगी के बस मर जाऊंगा..-
अब भी वहीं हो ???
नहीं....
अब तुम्हारे लिखे ख़तों की क्रीज़ ठीक करता हूँ।
यही उम्मीद थी, कि बस नहीं चलेगा..
यही दास्ताँ है के
अब तक अधूरा हूँ मै....-
जो उठे थे कदम तो मंज़िल दूर हो गयी...
मै लड़खड़ाया भी तो कारवाँ लौटता देख के।-
बड़े सलीक़े की जिंदगी जी रहा है तू
तू जो है तू..
खुद में मर रहा है क्या तू?
उम्र भर रास आयी तुझको बेहिसाबी
तू जो है तू...
अब लम्हों को गिनके क्यों लम्हों में जी रहा है तू?-
कुछ एक ज़ख्म हैं जो याद हैं मुझे..
कुछ एक ज़िन्दगी...जो पूरी भुला दी मैने।-
लगी है आग,के हवा दो...
साहब-ए-मसनद की ख़्वाहिश है के
राख पे महल हो।
साहब-ए-मसनद- सत्ताधीश
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आजमाइशों का दौर,
और
वो मेरी आख़िरी मोहब्बत
जिंदगी रंग बदल गयी इम्तिहाँ लेते लेते...-
ये जिंदगी बद-नसीब है..और ये जिंदगी भी क्या!
फ़क़त मंज़िल बहुत क़रीब है..और ये मंज़िल भी क्या!
फ़क़त-बस इतना ही-
है एहसास मुझे उस "ज़मीं" का
जिस ज़मीं पे ... मेरा वजूद बिखरा पड़ा है...
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