बीमार शरीर ही जीवन को अच्छे से समझता है। उसे अपनी रुग्णता का आभास होता है, शक्ति घटती हुई प्रतीत होती है। स्वस्थ मनुष्य जीवन के सबसे बड़े सत्य को भूल जाता है। बेचारा अबोध मानव ! ईश्वर से मांगता भी है तो क्या, स्वास्थ्य? स्वास्थ्य मांगने का अर्थ है, भ्रम मांगना, असत्य का पर्दा मांगना। जो आदमी बीमार रहते हुए, लगातर बिस्तर पर पड़े हुए, निःशक्त होते हुए भी संतुष्ट दिखाई पड़ता हो, उसे बहादुर न जानना, वह ज्ञानी है। वह न तो स्वयं को असहाय मानेगा, न ही दूसरों की सहानुभूति चाहेगा। उसके चित्त में स्वीकार्य का भाव है। उसे कोई डरा नहीं सकता, क्योंकि वह कुछ पाने का इच्छुक नहीं है। उसे कोई हरा नहीं सकता, क्योंकि वह जीतने की चेष्टा नहीं करता। उसे कोई दुःखी नहीं कर सकता, क्योंकि उसके भीतर आनंद की कामना ही नहीं है।
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ज्योतिर्मय ब्रह्मांड में फैले गहरे अंधकार सा
राख... read more
बस एक सीना, बस एक बदन है, और उस पे दो-दो दिलों का ग़म है
ये पाँव कितने थके हुए हैं, ये इश्क़ कितना बड़ा सफ़र है-
जानी हुई गलियों में बसर कर नहीं पाए
लेकिन कभी परदेस में घर कर नहीं पाए
हर मील के पत्थर पे लगाए थे निशानात
सुनते हैं कि तकमील-ए-सफ़र कर नहीं पाए
एक तुम हो जो ख़ामोशी से बेचैन किए हो
एक हम हैं जो बातों से असर कर नहीं पाए
शहर-ए-ग़म-ए-हस्ती में हवा तेज़ बहुत थी
कितने ही चराग़ अपनी सहर कर नहीं पाए
कुछ उनकी निगाहों से हया झांक रही थी
कुछ हम ग़लत-अंदाज़ नज़र कर नहीं पाए
ऐ रस्म-ए-मोहब्बत तेरी ताज़ीम की हमने
कोशिश तो बहुत की थी मगर कर नहीं पाए-
विचारशील होने का अर्थ ही है, द्वन्द्व को आमंत्रण देना। जो विचार करता ही न हो, उसके भीतर कैसा विरोधाभास ! वह तो जिस स्थिति में है, वहीं जड़ होकर ठहरा रहेगा। जो गतिमान होने का प्रयास ही न करे, उसे भला कोई घर्षण बल क्यों महसूस होने लगा। विचार का उद्गम ही असंतोष से है। जहां पड़े हैं, वह जगह रास नहीं आ रही, इसलिए वहां से निकलने के उपाय खोजे जाएं; यही विचार का मूल सूत्र है।
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लगे न पांव में ठोकर ठहर ठहर के चलो
क़दम क़दम पे हैं पत्थर ठहर ठहर के चलो
भले ही देर हो लेकिन कहीं पहुंचना है
पुकारता है तुम्हें घर ठहर ठहर के चलो-
गर्दिश-ए-रोज़-ओ-मह-ओ-साल से मिलता नहीं है
सुख कभी वक़्त के आमाल से मिलता नहीं है
सद-मुबारक तुझे ऐ रू-ब-रू मिलने वाले
अब तेरा हाल मेरे हाल से मिलता नहीं है-