मेरे चेहरे पर जो होते है,
क्यों बाद मेरे वो नही रहते ।
स्त्री कह दीजिए उनको,
होकर आदमी जो नही रहते ।
वक्त की मार है धूप छांव लगी रहती है,
जवानी फिर बुढ़ापा हम ज्यों के त्यों नही रहते ।
मेरी झोपडी मे कुछ नही मेरे मन मे सुकून है,
तुम कहो उन महलों मे खुश क्यों नही रहते ।
लेखन : आशुतोष पाराशर
मेरठ-
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लोग, मौसम, पहर ज्यों के त्यों हैं,
गांव, कस्बे ये शहर ज्यों के त्यों है ।
दर्पण, तू, तेरी परछाई सब यहीं है,
प्याले, कलम ये जहर ज्यों के त्यों हैं ।
रौनकें, रोशनी, रमन्नक सब भ्रम है,
लकीरें, कच्ची दीवारें ये घर ज्यों के त्यों हैं ।
साल, माह, सप्ताह बदल गए तो क्या,
तारीखें, इतवार ये कलंडर ज्यों के त्यों हैं ।
यादें, तकलीफें ये कहर ज्यों के त्यों हैं ।
‘आशु ’ तेरी गजलों के बहर ज्यों के त्यों है ।
बहर – गहराई
लेखन – आशुतोष पाराशर ( मेरठ )
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मै ताउम्र बुतों मे इंसान खोजता रहा,
इंसानियत बसती जहां, मकान खोजता रहा ।
जिंदादिलों मे जिंदगी और मुर्दों मे जान खोजता रहा,
' आशु ' इस जहां के सारे शमशान खोजता रहा ।
घर के कोनो मे ' गरीबी ' के निशान खोजता रहा,
जहां बिकती हो अमीरी वो दुकान खोजता रहा ।
हो रस से भरी कोई मै जुबान खोजता रहा,
कड़वे लोग बने मीठे मै वो ' पान ' खोजता रहा ।
अपना ही दोस्ती के लिए, इक अंजान खोजता रहा ।
होकर फिक्रमंद मै, मेरा खानदान खोजता रहा ।
अब जाकर मैंने जाना कि शैतान खोजता रहा,
मै इंसान नही अब तलक हैवान खोजता रहा ।-
मिरी खामोशी से इक मातम की गंध आती है,
इन जिंदादिलो को क्योंकर ये सुगंध आती है ?
शोरगुल से भीतर मेरे इस कदर भरा हूं मै,
मिरे ही कानों तक ये ध्वनि मंद आती है ।
इंसा से इंसा की तरह मिलने लगा हूं मै,
स्वार्थ की रोशनी मे नजर धुंध आती है ।
तजुर्बे से मिरे अब तलक जिंदा ही रहा हूं,
धड़कने मिरी एक लंबे अरसे से बंद आती है ।
लेखन - आशुतोष पाराशर-
The Kashmir Files
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रोज सहर पर निकल कर घर लौट आता है,
वो प्रवासी अंततः क्यों शहर लौट आता है ।
बाद जद्दोजेहद के जब अंजाम पे आता है,
पूर्ण विराम से पहले उसमे ' पर ' लौट आता है ।
मेरी आत्मा का मंथन भी कोई सुकून ढूंढ लेता,
जहन मे मेरे तेरी स्मृति का जहर लौट आता है ।
' आशु ' रघों मे खूं नही वो ही दौड़ता है तेरी,
होकर शायर की गजल का बहर लौट आता है ।
मुझमें रोज जीता है कोई रोज मरता भी है,
शोक से पहले सन्नाटे का कहर लौट आता है ।
ये बरस बिता पाना तेरे बगैर मुमकिन था मगर,
इक दिन ढल पाता कि वो पहर लौट आता है ।
तुझे खुद से मिटाकर जिंदगी आसान न रहेगी,
बिन तेरे तनहा सफर का डर लौट आता है ।-
बाद तेरे उसमे बचा ये खालीपन है,
शोक से हर्षरत दिखता नीरस मन है ।
एक खुशबू है बची उस में कहीं लिपटी हुई,
सिर्फ अक्स बाकी न तेरा.. पूरा तन है ।
सोचता है जब तुझे सोचता रह जाता है,
सोचने वाला कोई मुझको दिखता पूरा मग्न है ।
आंखों मे पानी लिए और यादें हंसाती है उसे ,
शुन्य कंठ पर वेदना का कितना भारी रूदन है ।
दर्द से थपेड़े हुए हैं क्यों शब्द भावों से भरे,
कानों में लगते है मानों मेघ थामे वो गगन है ।
लेखन - आशुतोष पाराशर
मेरठ-
सिर्फ जेब नही, नोट रिश्तें भी गर्म रखते है,
पैसों से खिंचने वाले बातों को मर्म रखते हैं ।
छांव मिलती है तो बेशक सराहा जाता है,
प्रवासी, तूफानों मे उन पेड़ों पर भ्रम रखते हैं ।
अमीर नही सफर पर भूखे भी मिलते हैं मुझे,
मिल–बांट कर खाते हैं थोड़ी तो शर्म रखते हैं ।
मंगलसूत्र नही उनका सम्मान गिरवी रखते हैं,
हराम का खाने वाले क्या कोई धर्म रखते हैं ?
मेहनत से कमाने वाले ही सुकून से सोते हैं,
अब तलक हम अच्छा ही कर्म रखते हैं ।
आओ बैठों कभी तुम्हे बेशक सुनेंगे,
सज्जनों के लिए हम स्वभाव नर्म रखते हैं ।
लेखन - आशुतोष पाराशर
( मेरठ )
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