Ashutosh Mishra   (आशु)
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14 JUN 2022 AT 9:17

धर्म के नाम पर
अधर्मियों द्वारा किए गए
दंगो में मृत पड़ी मानवता के मध्य
जन्म लेती है एक क्रूर विचारधारा
जो दूषित विचारों के गर्भ से जन्मी होती है 🙏

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23 MAY 2022 AT 23:55

ये शहर आंख में धूल झोंकता है
पहली बार मिलने पर आप
इसे समझ ही नही पाओगे

ये शहर भागता हुआ दिखाई तो देगा
पर घाटों पर आके
एकदम से ठहर सा जायेगा

ये शहर आपको बेतरतीब तो लगेगा
पर उलझी हुई
सकरी गलियों में
आके एकदम से सुलझ जाएगा

ये शहर आपको जीने से ज्यादा
मृत्यु सिखाएगा

ये शहर आपको मोह लेगा
और अगले ही पल
मणिकर्णिका पर
उसी मोह को राख कर देगा।

ये शहर आपको गंगा का बहाव भी सिखाएगा
किंतु उसी किनारे आपको किसी
बाबा की एकाग्रता भी देगा।

ये शहर नही है
एक दर्पण है
जिसके आर पार

जीवन के कई सत्य दिखते है।।

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24 JAN 2022 AT 12:55

उसे क्रिकेट नहीं पसंद था
पर मुझे वो पसंद थी।

उसे चाय नहीं पसंद थी
पर मैं उसे पसंद था।

हमारी पसंद और नापसंद के
बीच खूबसूरत ये था कि

हम दोनों एक दूसरे को पसंद थे❤️

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3 DEC 2018 AT 18:53

पुराना,कुछ उलझा हुआ, कुछ राज़ समेटे
मुझे मेरा इश्क़ भी "बनारस" सा लगता है।

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6 DEC 2021 AT 0:03

ना तुम शीर्षक में थे
ना ही भूमिका में
ना तुम आए प्रथम अध्याय में
न ही किया मैने वर्णन तुम्हारा
अपनी कहानी के मध्य में

तुम सहसा आए कहानी के अंत में
शायद मैं तुम्हें इस प्रेम कहानी का
अंतिम अध्याय बनाना चाहता हूं ।

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3 SEP 2021 AT 20:10

कभी कभी अतीत की यात्रा
बड़ी सुखद होती है

कान में बजते संगीत के मध्य
अचानक से अतीत के क्षण का
स्मृति पटल पर उभर आना
बड़ा ही सुखद होता है।

कुछ धुंधले दृश्यों के बीच
गंगा घाट के उस पार
रेत पर तुम्हारा नाम लिखता मैं

लहरों के बीच अपने पांव डालकर
प्रसन्नता से थिरकती तुम

रेत को हाथ में पकड़कर फिसल जाने की
मिसाल देता मैं

मुस्कुराते हुए मेरा हाथ थामकर
जन्मों तक साथ रहने की बातें करती तुम।

उस एक क्षण में ना जाने कितनी ही
सुखद स्मृतियों का बोध होना
खींच लेता है मुझे वर्तमान की
वास्तविकता से परे,

उन स्मृतियों की ओर
जहां वर्तमान की पीड़ाओं का
लेश मात्र भी
मुझे बोध नही।

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4 JUL 2021 AT 19:50

तेरी हर बात तेरा हर बात से मुकर जाना
बड़ी मुद्दत बाद तेरा ये हुनर जाना।

बड़ी उम्मीद से आए थे शहर तेरे
बड़ा चुभ गया तेरा करीब से गुज़र जाना।

मेरी आंखें शायद अब भी तुझे पहचानती है
गवाही है तुझे देख इनका यूं उतर जाना।

जिसे मांगों दुआओं में मिल जाए मुमकिन है क्या
तुम मिल गए तो दुआओं का असर जाना।।

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27 APR 2021 AT 18:55

मेरी कविताएं
सदैव अधूरी लगती थी

कभी अलंकार युक्त होकर
भावहीन
तो कभी रस से पूर्ण होकर
अर्थहीन

कविताओं का इतना अधूरापन
मुझे खटकता रहता था

हमेशा एक प्रश्न चिह्न रहा
मेरी कविताओं की पूर्णता पर



पर जबसे तुम मेरी
कविताओं का आरंभ हुई हो

तुम मेरी कविताओं का
पूर्ण विराम बन गई हो।

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5 APR 2021 AT 12:09

तुम कटु सत्य हो
मैं मिथ्या हूं।

तुम सृजन हो
मैं विनाश हूं।

तुम सम्पूर्ण हो
मैं शेष हूं।

तुम शाश्वत हो
मैं क्षणिक हूं।

तुम मौन हो
मैं गूंज हूं।

तुम गंगा हो
मैं अपवित्र हूं।

हम दोनों भिन्न है
विलोम शब्दों की तरह
हमारे अर्थ सदैव भिन्न रहेंगे
जीवन के हर प्रसंग में

हम साथ रहकर भी
पृथक ही दिखेंगे।

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18 MAR 2021 AT 19:04

तुम्हारी मुस्कुराहट में
और फूलों के खिलने में
मैं काफ़ी समानताएं पाता हूं

मुस्कुराते हुए तुम्हारे अधर
गुलाब की पखुड़ियों से जान
पड़ते है

लेकिन
धरती ने मुस्कुराने के लिए फूल चुने
पर मैंने मुस्कुराने के लिए चुन लिया
तुम्हारी मुस्कुराहट को।

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