रातों को घिरा रहता हूँ खयाल–ए–उल्फत से,
बस शामें कुछ तन्हा ग़मज़दा गुज़रती हैं,
दिन बीत जाता है बेरंग रश्क़–ए–रोज़मर्रा में,
बस सुबह आँखें बिना हुए दो चार खुलती हैं।
एक अजीब सी ख़ुमारी छाई रहती है ज़हन में,
नापसंद कुछ नहीं, फिर भी कुछ अच्छा नहीं लगता,
न जाने क्या है हक़ीक़त, या है ये वहम ही,
मैं कभी कभी खुद को भी अच्छा नहीं लगता।
किसी की तलाश में क्या मैं ही खो गया हूँ,
ऐसा तो न था मैं, ये क्या हो गया हूँ,
बाहर आँखें खुली हुई और मैं अंदर से जागा जागा सो गया हूँ,
मैं क्यों खुद का ही नहीं रहा, ऐसा मैं किसका क्या हो गया हूँ।
खैर इन सवालों के जवाब में भी एक सवाल पाऊंगा,
जितना उलझूँगा इनमें बस बवाल पाऊंगा,
ये बेचैनी एक हरारत है जो बस जगा रखी है,
मैं नींद में मूंद लूंगा आँखें तो राहत पा जाऊंगा।
Ashutosh Ganguli 'DADA'
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रातों को घिरा रहता हूँ खयाल–ए–उल्फत से,
बस शामें कुछ तन्हा ग़मज़दा गुज़रती हैं,
दिन बीत जाता है बेरंग रश्क़–ए–रोज़मर्रा में,
बस सुबह आँखें बिना हुए दो चार खुलती हैं।
एक अजीब सी ख़ुमारी छाई रहती है ज़हन में,
नापसंद कुछ नहीं, फिर भी कुछ अच्छा नहीं लगता,
न जाने क्या है हक़ीक़त, या है ये वहम ही,
मैं कभी कभी खुद को भी अच्छा नहीं लगता।
किसी की तलाश में क्या मैं ही खो गया हूँ,
ऐसा तो न था मैं, ये क्या हो गया हूँ,
बाहर आँखें खुली हुई और मैं अंदर से जागा जागा सो गया हूँ,
मैं क्यों खुद का ही नहीं रहा, ऐसा मैं किसका क्या हो गया हूँ।
खैर इन सवालों के जवाब में भी एक सवाल पाऊंगा,
जितना उलझूँगा इनमें बस बवाल पाऊंगा,
ये बेचैनी एक हरारत है जो बस जगा रखी है,
मैं नींद में मूंद लूंगा आँखें तो राहत पा जाऊंगा।
Ashutosh Ganguli 'DADA'
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बयां–ए–इश्क़, जहां से पोशीदा, सलीके से बाहया नज़ाकत से होती है,
जैसे क़ासिद के हाथ में हो के भी, लिफाफे में दिल की बात खूफिया खत सी होती है,
और नाज़ुक होती हैं इज़हार–ए–मोहब्बत कोई पैनी बात नहीं,
ये हल्फी बयां नहीं शायरी की शरारत सी होती है।
मसल के कलियाँ बनती हैं इत्र, पर हो जाती हैं क़ैद कांच की दीवारों में,
सबकी ज़ुबां पे है इश्क़, ताज़गी का कहवा, कोई कड़वा काढ़ा नहीं जो हो शुमार बीमारों में,
वैसे ही है मोहब्बत एक मुसव्विर का ख़्वाब, हाज़िर ज़ाहिर है भी और नहीं भी,
जो खुद निकला है समंदर के सफर पे वो ही समझेगा, ये नियामत होती नहीं निगाहों को नसीब किनारों में।
Ashutosh Ganguli 'DADA'.
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ध्वजा पताका लहर उठी,
क्या आज़ादी की यही निशानी है?
या नारे ऊंचे करने की,
बस इतनी ही रग में रवानी है?
एक सुर होकर चंद क्षण भर को,
पैरों पर खड़े रहना ही जवानी है?
ज़ंजीरें सोच की झकझोरें न जो,
वो खून नहीं है पानी है।
बंधे हुए हैं रूढ़ों से,
मरी चेतनाधारी मूढ़ों से,
स्वार्थी मदान्ध क्रूरों से,
पुरुषार्थहीन युवा बूढों से,
भूमि पटी पड़ी सिद्धांतहीन मजबूरों से,
क्रांति आती है चट्टानों से, नहीं बुरादे चूरों से,
ये खोखली प्रगति बुलबुला है, प्रचारित होती खोखली कथानक मशहूरों से,
सत्य के प्रश्न हैं प्रतिबिंब, बिखराती शक्तिजनित तंद्रा की तिमिर मगरूरों से।
भयरहित उजागर कर सकते जब मन की वेदना व्यथा लिप्त उद्गार,
या निर्भय हो कर व्यक्त करो जब प्रतिकार प्रचंड विचार,
जब सत्य, प्रेम, समाज हो उन्मुक्त, न रहे कोई 'वाद’ ‘विवाद’ का विकार,
तब कहना अंदर से ‘आज़ाद’ हो, वरना ये कागज़ी है बेकार।
सफर अभी तो बाकी है, बस कुछ हद तक बढ़ चल आए हैं,
हासिल हुआ बहुत कुछ है, पर अज़ीज़ कुछ कही छोड़ आए हैं,
आओ एक हाथ थाम के बढ़ते आगे, एक हाथ से पिछला टटोलते हैं,
सिर्फ ज़ुबां में नहीं अंतःकरण में, मानवीय मार्मिकता में आज़ादी के नए आयाम खोलते हैं।
Ashutosh Ganguli 'DADA'
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बात ताज्जुब की है,
की शायद मिलता सबकुछ है इस जहां में सबको,
पर शायद, ‘जब’, ‘जैसे’, ‘जिससे’ और ‘जहाँ’ चाहिए वैसे नहीं,
‘जब’ ‘जैसे’ ‘जिससे’ और ‘जहाँ’ का उम्मीद और हक़ीक़त में बेमेल होना ही है ‘ज़िंदगी’,
और लफ्ज़ ‘शायद’ है खुश या बदकिस्मती की दस्तक,
जो दांव ‘शायद’ का सीधा पड़े तो ज़िंदगी दीवानी होती है,
और अगर जो पड़े उल्टा तो लकीर–औ–पसीने भरी पेशानी होती है,
पर पोंछ के माथा, लिए आंखों में चमक, सांसों में सनक, सीने में धड़क और बातों में हनक,
हर वक्त जो युद्ध में यलगार करता है,
वो स्वयं विजय तिलक है जो शक्ति, शौर्य और संयम से श्रृंगार करता है।-
अज्ञात:-
कुछ तो बात है,
या बदले हालात हैं,
या बदला जज़्बात है,
है कुछ जो अज्ञात है,
क्या फ़र्क क्या बात है,
होनी हर दिन की रात है,
कौन, क्या, कब तक किसके साथ है,
ज़िंदगी का तिलिस्म और जीने का सलीका, अज्ञात है,
खोना, होना, पाना अज्ञात है,
हंसना, रोना, मरना अज्ञात है,
सफर, हमसफर, मंज़िल अज्ञात है,
ज़िंदगी और इसका साहिल अज्ञात है,
एक अरसे पहले देखो, तुम हम भी अज्ञात हैं,
आज ज्ञात हैं, पर अनभिज्ञ हैं, ये भी कोई बात है,
मुलाकात और ताल्लुकात का कारवां हैं ज़िंदगी,
ये कारवां कब क्या करवट ले, ये भी अज्ञात है।-
ज़माने को खेलने दो आग से,
हमें पानी सा शांत रहने दो,
आग के होने के लिए पानी का डर होना ज़रूरी है,
हम वो डर हैं, हमें बन के डर रहने दो,
जब हमारे लहजे का लहर गूंजेगा तो सिर्फ सुनाई देंगे हम,
तब तक जिसे जो कहना है, दिल खोल के बस कहने दो,
हम भी भीमशिला हैं, थाम लेंगे प्रवाह प्रतिकार में,
ये सब मौसमी धाराएं हैं सैलाब नहीं, बच के बहती हैं तो बहने दो।-
एक खयाल है....
शायद ओस से ज़्यादा शुद्ध और सौम्य होता होगा,
किसी की याद में आंखों की कोर से टपका हुआ एक आंसू....
क्योंकि वो खुद में संजोए हुए है,
एक कायनात,
एक कहानी,
भावना, स्वप्न, प्रतीक्षा, शोर, मौन, हताशा, निराशा, सुकून, चाह, आह,
प्रस्फुटित होता प्रेम,
पाषाण करती पीड़ा,
तृष्णा और तृप्ति की ज्वार भाटा,
एक आशा, एक डोर, एक लगाव,
और एक.....
अदृश्य खिंचाव।-
छोटी आंखों में नींद बड़ी,
नींदों से ज्यादा ख़्वाब बड़े,
ख़्वाबों से बड़ी हसरत मेरी,
हसरत से बड़े हैं जुनूं मेरे,
जुनूं से बड़ी चाहत मेरी,
चाहत से बड़ी मेरी हिम्मत,
हिम्मत से बड़ी शिद्दत मेरी,
शिद्दत से बड़ी उनकी रहमत।
अब पड़ता फ़र्क नहीं मंज़ूर है सब,
जब मान लिया है उनको रब,
हो इनायत नसीब जागेगा तब,
उनकी मर्ज़ी रहम–ओ–करम हो जब,
मुझे उम्मीद नहीं उनसे भी अब,
हैं मौन मुखर ओ शिथिल हैं लब,
क्या पता मेहरबानी हो कब,
जो जो नहीं मिला पाऊं सब तब।
क्यों प्रतिबिंब उनकी आंखों में मैं होकर रहना चाहता हूँ,
वो खोले मूंदें आँखें जब मैं उनमें खोकर रहना चाहता हूँ,
बदन के बंधन लांघ चुका अब ज़रूरी नहीं है उनका स्पर्श,
क्या फ़र्क वो जब भी मेरी हों, मैं जिनका हूँ उनका होकर रहना चाहता हूँ।
Ashutosh Ganguli 'DADA'.
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ये मुमकिन है कि खयाल–ए–जहां दराज़ में हमें भूल जाएं वो,
किसी गैर–मामूली किताब के पन्ने में मुड़े सिलवट में दबाएं वो,
तारीख वो पन्ने भी खोल पलटें अगर, पन्नों पे सिलवटों के निशां मिटाए नहीं मिटते,
हम याद आएंगे एक बिसरी गीत की तरह, बिन बोल के भी जिसे मद्धम गुनगुनाएं वो।-