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जुगनुओं से कहो अपने उजाले अपने पास रखे।
ख़्वाब को ज़हन मे रखो,
नींद को पलकों पे रखो,
ज़िंदगी एक तजुर्बा है यार
गिला न कोई हार से रखो,-
गले मिलना, रंग लगाना सारे गिले भूल जाना,
ये मोहब्बत का त्योहार है इसे दिल से मनाना,
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मैं बेहद कम बोलता हूं
उनसे जिन्हें नहीं जानता हूं,
हां ना में जबाव देता हूं
जिन्हें दूर से जानता हूं,
बहुत सारा बोलता हूं
उनके सामने जिन्हें करीब
से जानता हूं,
मगर कभी कभी लगता हूं
मैं किसी को नहीं जानता हूं,
मैं बेहद कम बोलता हूं....-
मुस्कराता चेहरा,शरारे आखों में,
कितनी लज़्जत है तुम्हारी बातों में,
नज़रें कहीं पे भी पड़ें तुम्हें देखें,
मेरे ज़हन की तहें तुम्हें ही सोचें,
तुम मेरे खयालों की गहराई में हो,
तुम मेरी नज़रों की बिनाई में हों,
तुम्हें मालूम नहीं है ये सब जानां,
और मैं भी नही चाहता बतलाना,
तुमसे मिलकर बहुत अच्छा लगता है,
और इन सब बातों इक मुकद्दस दायरा है,
ज़माने के लिए मोहब्बत तंगदिली है,
और दीवानों लिए तो इश्क़ जिंदगी है।-
हमें न जाने किस बात गुमान है,
ज़िन्दगी तो चंद पल की मेहमान है,
वहशत से ख़ुद को निकाल ज़रा
ठीक से याद कर तू तो इंसान है,
हाथ फैलाए,सर झुकाए,क्या है ये
ख़ुद को पहचान तू तेरा भगवान है,
ये दुनियां तेरे लिए ख़ाक ही समझ
यहां रहनुमाओं का भी गिरवी ईमान है,
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जो पढ़ीं न गईं वो चिठ्ठियां हम रहे,
यादों ने भी भुलाया वो हिचकियां हम रहें,
डर से तूफ़ानों के मौजों संग न बहिं,
साहिलों से बंधी वो कश्तियां हम रहे।-
मेरे हाथ में गुलाब देते हुए उसने ये कहा
ख्याल रखना कहीं ये भी मुरझा ना जाए,-
चमकती आंखों के ख़्वाब पीले हो गए,
और मेरे गांव में दरख़्त अकेले हो गए,
नौकरी की जाद्दोजहद में इतनी देरी हुई
की घर पे छाए सब बादल काले हो गए,
हाल पूछा गया हमसे कुछ इस तरह से
लोग कह रहे थे हम नौकरीवाले हो गए,
आज को छोड़ कल सवारानें की चाह में
जितने भी नज़ारे थे ज़रीन धुंधले हो गए,-
तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो
आँखों में नमी हँसी लबों पर
क्या हाल है क्या दिखा रहे हो
बन जाएँगे ज़हर पीते पीते
ये अश्क जो पीते जा रहे हो
जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है
तुम क्यूँ उन्हें छेड़े जा रहे हो
रेखाओं का खेल है मुक़द्दर
रेखाओं से मात खा रहे हो
© कैफ़ी आज़मी-