Ashu Vimal   (ashu)
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Joined 17 July 2020


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19 MAY AT 13:27

कैसे करूं परिभाषित, क्या अच्छा है और क्या बुरा है
व्यर्थ उलझे हैं धागे, सुलझाना आसान नहीं पेचीदा है

अच्छा जो मेरे लिए, बुरा वो दूजे के लिए कैसे भला है
अच्छे को बुरा बुरे को अच्छा, कहने में संकोच कहाॅं है

सुना है समक्ष अच्छाई के, कद छोटा बुराई का होता है
गूंगा जब पक्षधर बुरे का, खड़ा एकाकी अच्छा होता है

डगमगाती नहीं अच्छाई, लड़खड़ाते बुरे को किसने देखा है
कैसे जीते फिर अच्छाई, प्रश्न अनसुलझा कालांतर खड़ा है

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29 APR AT 22:02

वो अपने झूठ को इस खूबसूरती से कहते हैं
कि हम अपने सच को ही झूठ समझ लेते हैं

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29 APR AT 21:49

कुसूर दिल का था सजा आंखों की मुकर्रर कर गए
ले गए नींद संग, सज़ा-ए-अश्क जिंदगी को दे गए

तेरे वादों के मखमली फरेब पर हम यूं बेखबर सो गए
कत्ल-ए-इश्क हुआ, ख्यालों की भूल भुलैया में खो गए

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1 APR AT 17:23

सजी महफिल रात भर, तेरी यादों के घर पे आने से
जाम टकराते रहे, झलकते रहे दर्द मद में प्यालों से

किया प्रयत्न उड़े गगन में, लिए पंख उधार भ्रमर से
चिरसंगिनी वह मेरी, हुई व्याकुल बिछोह के डर से

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26 MAR AT 19:38

हुआ बदरंग, साहस भी नहीं किवाड़ में था जैसे पहले
रोक ले जो नज़र अजनबी, चौखट पर चढ़ने से पहले

खटखटाती नहीं सुगबुगाहटें, बेझिझक आने से पहले
बड़ा मेल हुआ दरकती दीवारों से, न था ये कभी पहले

रहे नहीं वो हाथ जिन्होंने, लगाए पेड़ कभी बहुत पहले
भला पूछे किस से पवन अब, फ़ूलों को चुनने से पहले

था गुलज़ार चमन कभी, रिश्तों के लगते थे मेले पहले
कर दिया यादों को तन्हा, नया आशियां बनाने से पहले

सूने आंगन तकती तन्हाई, अंधेरों से मिलने से पहले
पंछी भी लौट आते घरों को, दीपों के जलने से पहले

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21 MAR AT 12:13

न थीं कड़वाहटें जुबां पे, न नफरतें ही दिलों में
वह शहर फिर भी धधका, सियासत की आग में

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31 JAN AT 18:14

‌‌हर शख्स अकेला खड़ा सम्बन्धों की भीड़ में
तूफानों को थाम ले जो ऐसा किनारा न मिला

जाम टकराते ही छलक जाती है मदिरा पैमानों से
दर्द मिटा दे आशिकों के ऐसा कोई नशा न मिला

उड़ान ऊॅंची है थकते नहीं पंख तमन्नाओं के
प्यास बुझा दे इंसां की ऐसा सागर न मिला

सुलग उठते हैं जंगल ढाक के फूलों के खिलने से
बसंत लाए रेगिस्तानों में ऐसा एक दरख़्त न मिला

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30 JAN AT 18:46

आवाज़ खोते
तन्हाई के शोर में
एकाकी मन

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22 JAN AT 13:07

उतर आई मेनका क्या इन्द्र लोक से आमोद में
लग रहा देख आया बसंत धरा पे हेमंत में जैसे

सोच रही हैं बहारें तक मुखड़ा मंजुल विस्मय से
सूरजमुखी खिल सकता भला इस शीत में कैसे

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20 JAN AT 20:33

था इंतज़ार कलि को भोर का खिलने को

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