तू कहे तो चुप हो जाऊँ, सब भूल जाऊँ,
पर बता, क्या मैं तेरा ही बनाया हुआ हूँ?
शीशे का न सही, पर ये दिल लोहे का भी नहीं,
कभी तो सोच, तेरे बंदे की भी हदें हैं कहीं
होगा तू भगवान किसी का, मेरा तू भगवान नहीं...
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मेरा ईश्वर मुझे गढ़कर शायद भूल गया,
आदमी बनाया, अश्क बनाए, अंजाम भी बनाए
मेरे इस कुछ जीवन में अरमान बनाना भूल गया,
नेकी दी, निष्ठा दी, नियत भी दी,
संघर्ष भरे इस जीवन की शख्सियत बनाना भूल गया,
मुझे भूलते भूलते वो ये भी भूल गया शायद
ये अंश हैं उस भगवान का ही
जो विधि के विधान से टकरा जाएगा,
जब तक प्राण ना हर ले मेरे वो स्वयं श्रीहरि
संघर्ष का पथ नहीं छोडूंगा,
जो कुछ लिखा है भाग्य की रेखाओं में,
पर हर रोज युद्ध मेरी आत्मा में उतर गया।-
हम भी जी चुके हैं शान ओ शौकत,
मेरी ख़ामोशी ने मेरा ज़मीर खाया है,
अब फिर निगाह है मंज़िल की ओर,
गिला न किसी से, शिकायत न कोई,
ये तो बस वक़्त की बेरुख़ी थी....
वक्त ने हमे पुरजोर आजमाया हैं✓-
सादगी अब सस्ती सी मालूम होती है,
जो मुस्कराते थे संग, अब ख़ज़ाने तलाशते हैं,
आदाब की रौशनी मद्धम पड़ गई,
दौलत के आफ़ताब में साये भी सुलगते हैं,
इंसानियत अब बोली में नीलाम होती है,
ज़मीर भी कभी मुफ़लिसी में झुक जाता है,
किसी की नेकी अब गिनती में नहीं आती "अशोक"
जब तक जेब में सिक्कों की खनक ना गूँजती है।
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धर्म की जड़ सदा हरी है,
हरे भरे पहाड़ों के बीच
तुमने जो कायराना हरकत करी है,
समय, संयम, सामर्थ्य सब देख लेना,
तेरा पछतावा भी पछताएगा मेरे एकभिति,
वही अधर माँगेंगे क्षमा की बूँदें,
जो धर्म की ध्वजा को ख़ून से रंगने चले,
जिन हाथों ने उठाई थी दुर्बुद्धि की तलवार,
उन्हीं हथेलियों में उगेगा प्रायश्चित का अंगार।
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कभी डाँट, कभी सलाह की सौगात,
उनका साया था सुकून की बरसात,
लगता हैं ..वो सख्त हैं, पर अब समझ पाया हूँ,
यही वो राह थी जिससे मुझे बनना था मजबूत,
बीमारी ने तोड़ा वो पर्दा, जब पहली बार गले लगाया,
वो स्पर्श अब भी रूह में गूंजता है,
काश, वो गले न लगाते, बस दूर से देख लेते,
पर शायद वही ठीक था, क्योंकि वो थे, और मैं था।
अब बस यादें हैं, और उनकी उस जकड़न का ताप,
जो कभी कम नहीं होगा, वो प्यार कभी कम नहीं होगा।-
छम से जिंदगी में,
छन छन करती आई वो,
कुछ वो इतराई, कुछ मैं इठलाया,
मैने उसमें ठहर कर पाया सब कुछ,
वो सब छोड़ मुझे पाने को ठहर गई,
लम्हे थम गए, लबों ने कुछ न कहा,
वो मेरी ख़ामोशियों में भी सुकून पढ़ गई...-
तपती रेत में मृगतृष्णा भी,
यथार्थ में बहता झरणा भी,
धोखे की तपती राहें भी,
सच्चाई से जीने की चाहें भी,
ईश्वर की इस दुनिया में सब कुछ समाया हैं...
जिसने जैसी देखनी चाही, वैसी ही दुनिया पाई है,
कहीं भ्रम की परछाईं,
तो कहीं सच्चाई की छांव प्रभु दिखाई है।-
ज़िंदगी में जो ज़ुबां न कह सकी,
वो क़लम ने कह दिया,
जो लफ़्ज़ों में न था, वो भी लहज़ों में बह गया,
इसी तरीके से सही हैं ये "अशोक"
जो दिल ही दिल सह रहा था,
वो भी कलम ने काग़ज़ को चुपचाप कह दिया।
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