अशोक कुमार कौशिक 'शौक़'   (#अशोककुमारकौशिकशौक़)
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Joined 9 November 2020


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Joined 9 November 2020

बरसती चाँदनी में चाँद मेरे आगोश में समा गया
मेरे ज़िस्म का पोर-पोर रूप के उजाले में नहा गया

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दम तोड़ रही है चाँदनी मेरा चाँद भी उदास है
उजियार जब जरूरी तीरगी क्यों आसपास है

एहसास की जमीन दरक रही नफ़स समास है
तुम ही तस्वीर तुम ही तकदीर क्या अनुप्रास है

टूट गया रिश्ता जो जहां भर में सबसे ख़ास था
फ़रेबी ने कल पूछा था क्या मुझ पर विश्वास है

रास न आया माह को, पल-प्रतिपल का गलन
अब्र ने क्या सोच नज़र में मेरी किया निवास है

तेरे चले जाने से हुई रुसवाई का ग़म नहीं मुझे
मन में बेहिसाब खदकता तेरा दिया उल्लास है

उदास जमीं उदास उदित होता फ़ासला-ए-उम्र
उसने उर उभार उलाहने में उलचा इल्तिमास है

भूला तो न होगा मेरा इक़रार जो तुझमें क़ैद है
'शौक़' आजा जो मरने नहीं, जीने की प्यास है

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तीखे तुंग, वीरान पथ, बर्फीली वादियाँ थाम न पाएँगी रफ़्तार
अहद-ए-वफ़ा निभा इकदिन समाप्त होगा मेरे प्यार का इंतज़ार

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रहबर बन तुम, समा तो गए हो, मेरी ज़िंदगी में
दुश्मन सी निभाओ, जो मोहब्बत, हमनफ़स मानें

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वो पुराने ख़त मेरी वफ़ा की जमापूंजी हैं
साँसों की जमाबंदी से ये बरकत पाई है

तुम याद बहुत आई हो दिलफेंक महबूब
जब-जब रक़ीब के घर में बजी शहनाई है

तुम्हें बख़्शी हैं दुआओं में बेशुमार रोनकें
मुझमें मगर अंगड़ाई लेती बेजुबान तन्हाई है

तुमने जिसे जानबूझकर अनदेखा किया
जलवाफ़रोज़ बुझती साँसों की रोशनाई है

तेरी वज़्म में नाम के जो हकदार नहीं थे
'शौक़' दिल में क्यों वस्ल-ज्योत जलाई है

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अश्क़ पौंछ, हाथ छुड़ा, तुम मुस्कुरा कर तो चल दिए
तुम जा रहे हो, मेरी रुसवाई का बिना कोई हल दिए

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अभी भी समय है सम्भल जाओ तुम
वरना तेरे अश्क़ पौंछने वाला कोई नहीं होगा

अभी समय तेरे अनुकूल है मुस्कुरा लो तुम
समय जो बदला कोई पूछने वाला नहीं होगा

जिस तरह मैं पलट-पलट कर देखता रहा
फ़र्दा कोई भी तेरा साथ देने वाला नहीं होगा

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ये सोच दूर खड़ा हूँ,साधारण हूँ लाज़वाब का हक़दार नहीं,
मोहब्बत का इज़हार किया जो कह दोगे मैं वफ़ादार नहीं।

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सादगी से जान लेकर शर्माना, बता तुमने सीखा कहाँ से,
इक नज़र में दिल चुराने का हुनर तुमने सीखा कहाँ से।

ये नज़ाकतें, कमर में एक बार में सौ-सौ बल का डालना,
आँखों ही आँखों में बतियाने का ये शिल्प सीखा कहाँ से।

बिन पलटे देख जाती हो, इक मुस्कान में कत्ल करना,
मासुमियत से मेरी बाहों में समाना तुमने सीखा कहाँ से।

बंद आँखों से मेरे दिल का कैसे कर जाती हो तप्सरा तुम,
नज़रों से सोज़े-उल्फ़त सोखने की कला सीखी कहाँ से।

कुछ न कहके भी कर जाती, पलक उठा शिकायत हजारों,
पलक गिरा,अँगुठे से जमीन कुरेद मनाना सीखा कहाँ से।

तेरी ये सादगी,तेरा ये बंदगी का भाव,दूर करे हर अभाव,
फ़ासलों को कम करने का कला-कौशल सीखा कहाँ से।

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गुलबर्ग, सुबह कब होती, शाम कब ढ़लती पता नहीं,
तेरे जाने के बाद ज़िंदगी इंतज़ार में तमाम होती रही।

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