नई पोशाक पहन निकलते थे घरों से,
मेला लगता था जिन दिनों वहां
जेबें खाली थी मगर
न जाने कब कौन कहां से रिश्ता बताकर
कुछ इस तरह जेबों को भर देता
कुछ ख्वाब तो पूरे हो जाते कुछ ख्वाबों को संजो लेता
मगर आज जेबें भरी है इतनी पर कोई ख्वाइश कहां,
शहरों की चकाचौंध में गुम हुआ वह ,अब मेरा गांव कहां?
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कागज का इक टुकड़ा जो उड़ता रोज आधियों में,
कभी भीगता बारिश में कभी घूमता वादियों में
सोचो जरा वह कागज का टुकड़ा......
सोचो जरा वह कागज का टुकड़ा ,रगों की सुध लेता कैसे?
धूमिल हुए है आखर जिसमें, इक पल में पढ़ लेता कैसे?
सांसे अगर बिखरी हो तो, आंसू को सह लेता कैसे?
फेंक दिया हो जिसे किनारे ,लहरों में बह लेता कैसे?
आंधी जब परछाई हो तो, जलने पर भी जल लेता कैसे?
ढकी आंख हो हर मंजर में तो, कह कहकर कह लेता कैसे?
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पहाड़ में तैनाती को जब तक, सजा समझा जायेगा
बस्ती के मकाँ बनने का स्वप्न, अधूरा ही रह जायेगा
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कुछ पत्थर कुछ मूर्त बनकर,
इक पल में हमसे निखर गया
कुछ दरिया कुछ बूंदे बनकर,
किनारों पर ही बिखर गया
कुछ पिंजरा कुछ परिंदे तोड़कर,
हवा के झोकों में बह गया
कुछ सीख कुछ भूल बनकर,
आदतों में ही रह गया
कुछ आशा कुछ सपने देकर,
एक साल हाथों से फिसल गया
कुछ तस्वीर कुछ यादें देकर,
कोई अपना हमसे बिछड़ गया
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मन की आशा का इक पनघट , बूंद- बूंद में सिमट रहा ।
कोई पी गया हथेली से तो, कोई घड़े भरने में रहा खड़ा ।-
अब तक संभाली है निशानियां महबूब की , किस कदर खुद को दीवाना बना दिया !
ज़िद थी तुम्हारी आज को कल बनाने की,देख दोस्त को ही आज दुश्मन बना दिया !!
हालात ए हाल का हमें मिला सबब ये, हमने बंद कमरे में खुद को छुपा दिया !
नफ़रत नहीं मुझे महफिलों से साहिब, हमने घर को ही मयखाना बना दिया !!
सिखाओ न अकेलेपन का अहसास हमको, इस दिल को हमने पत्थर बना दिया !
सपनों का डर इन आंखों से पूछों ,जिन्होंने पलके झुकाना भुला दिया !!
मलाल करे भी तो कैसे उनसे, उन्होंने आंसुओं के बूंदों से सागर बना दिया !
हिमाकत की जब - जब दुनिया से बिछड़ने की, हमें गहरी नीदों से किसी ने जगा दिया !!
यकीं मानो अगर हो ये ख्याल तुम्हारा, तो तुमने सब खोने से बचा दिया !
लाजमी था ये सब कुछ तुम्हें बताना , तुम कह न सको बेवजह खुदा ने पर्दा गिरा दिया !!
-Ashok dimri🤞
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मिजाज़ क्या बदला हवा का,
घरों में कैद हर हस्ती हो गई !
देखो फिर आज ज़िन्दगी महंगी,
और दौलत कितनी सस्ती हो गई !!-
युद्ध नहीं जीते जाते हमेशा तोपो और बमों से,
वीरान सरहद में भी इंसान घिरा होता है कई गमों से
कभी सड़कों पर बेफिक्र होते है जानवर,
मगर तुम्हें तकलीफ होती है हर एक लम्हों से
पीछे मुड़कर जब भी देखते हो, तो एक आवाज़ आती है पदचिन्हों से
जो चीख चीख कर कहती है -
था तेरा कुछ हिस्सा यहां पर,हर चीज पर तेरा हक न था
कभी घर का दरवाज़ा ही बनेगी सलाखें, इसका तुझे शक तक न था
सोचा न होगा तूने सारे रिश्ते नाते इक दिन मूर्त बन रह जाएंगे
तेरे आखरी वक़्त पर भी लोग तुझे छूने से घबराएंगे
उड़ते पंछी अब तेरी छतों पर शायद ही मंडराएंगे
बादल गरजेगा मगर बूंदे धुन नहीं गुनगुनाएंगे
बेबस और लाचार होकर तुम जब दाना जुटाना चाहोगे
खाली बर्तन को तुम अपने आसुओं से भरा पाओगे
होगा अहसास तुम्हें उस वक्त की न होते मकान यूं इतने मेरे शहर में
चमकते खेत खलिहान जवाब देते तड़पती भूख के इस कहर में
जब ये तारीखें इतिहास के पन्नों में दर्ज होकर रह जाएगी
मौत की वजह होगी महामारी पर सबको इंसान की गलती नजर आएगी
- Ashok Dimri
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