ASHKAR   (The_heartt_thoughts")
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Joined 17 September 2018


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Joined 17 September 2018
1 MAY AT 2:16

ना जाने क्यों उसकी आँखों का एक आँसू भी मुझे इतना चुभता है,
उसके चेहरे पर धीमी मुस्कुराहट के साथ ख़ामोश चेहरा भी
मुझे दिखता है।
उसकी छोटी सी परेशानी हो या उसके चेहरे पर लिखा
ग़म हो सब कुछ मुझे दिखता है,
ग़म, दर्द, तकलीफ़ उसका रूठना हो या समेटना ख़ुद को,
जिसे छुपाना चाहता हो अपनी ख़ूबसूरत मुस्कुराहट और प्यारी बातों के पीछे,
मुझे ख़बर होती है सब, महसूस होता हैं सब और मुझे उसका चेहरा सब कह देता है।

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29 APR AT 19:06

कुछ ख़्वाब मैंने देखे खुली आँखों से।
कुछ ख़्वाब देखे नींद में डूबी आँखों से।
कुछ ख़्वाब जिन्हें पूरा करने की ख़्वाहिश हैं।
कुछ ख़्वाब जो ज़हन को ख़ौफ़जदा करते हैं।

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29 APR AT 18:58

मुझे डर लगता है इन धूल भरी हवाओं से,
आँधियों से, तूफ़ानों से,
लगता है जैसे लूट ले जाएँगे ये मेरा भरम
मेरा ज़र्फ साथ अपने।

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24 APR AT 1:21

चुभता तो बहुत कुछ है किसी का व्यवहार, किसी का मुँह मोड़ लेना, किसी का चले जाना।
मगर! पता है सबसे ज़्यादा क्या चुभता है सब कुछ होते हुए भी अकेलापन महसूस करना।
ASHKAR

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16 APR AT 22:16

मैं अक्सर बातें करती हूँ चाँद से,
मगर सोचती हूँ कई बार!
क्या चाँद कभी करता होगा बात
अपनी चाँदनी से, पूछता होगा
उसका हाल?

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5 APR AT 22:00

ना जाने कितने मन्नत के धागों में बांधकर
माँगा है मैंने मोहब्बत को, एक शख़्स को,
हमदम को, हमदर्द को, हमसफ़र को।
और अब हर लम्हें में हर धड़कन के साथ
एक ही दुआ करती हूँ कि मेरे वो साथ रहे,
पास रहे, ताउम्र मेरा और सिर्फ़ मेरा रहे।
मैंने उसे अपने सामने बैठाकर देखा है
जब-जब उसकी आँखों में बेइंतिहान
मोहब्बत को, तब-तब उसकी आँखों
ने मुझे मोहब्बत का पाबंद किया है।

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20 MAR AT 22:08

हर पल में हम आबाद रहें।
जब तुमने देखा मेरी आँखों
चारों तरफ़ खुशहाली लगे।
थामा जब तुमने हाथ मेरा,
बाग़-बगीचे गुलज़ार हुए।
हाल जब मेरा पूछा तुमने,
दिल की धड़कन तेज़ चले।
आई जब बिछड़ने की घड़ी,
फिर दुनिया मेरी थमने लगे।

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19 MAR AT 19:09

चाहत है यही मेरी कि तुम्हें चाहूँ तुमसे ज़्यादा,
हर जन्म में तुम्हारी रहूँगी किया है ख़ुद से वादा।

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15 MAR AT 21:10

ना जाने कितने लोग अधूरेपन में जीते हैं।
ना जाने कितने पल अकेलेपन के जीते हैं।
कुछ मोहब्बत से हारे हैं तो कुछ अपनों से,
कुछ धोखों के मारे हैं कुछ हारे हैं सपनों से।
किसी के घर की चार दीवारों में सूनापन है,
कोई भीड़ में भी महसूस करता अकेलापन है।

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12 MAR AT 1:33

थकन सी हैं ज़हन में, ना जाने कब ये हुआ।
रोज़ ज़िम्मेदारी के तले ना जाने कब मैं दब गया।
लोग तो थक जाते हैं मेहनत करते करते।
मैं ना जाने किस काम से थक गया।
कुछ पल जाकर लेट जाता हूँ दीवार सटे पलंग पे,
हाँ! वहीं चार दीवारों से छत से बने अपने कमरे में।
कुछ पल को लगता है अब आराम है शरीर को,
मगर ज़हन ना जाने कितने विचारों का बोझ ढोता है।
ना जाने कितने सवाल और सवालों के जवाब कहाँ होगे?
ना जाने कितने काम हाँ! वो भी तो सुबह निपटाने होगे।
ना जाने कितनी ज़िम्मेदारी है समझदारी से निभानी है।
ना जाने कितनी जंगें हैं क्या कभी जीत मिल जानी है?
कभी-कभी बहुत ज़्यादा थक जाता हूँ अपने आप से भी,
चाहता हूँ जीऊँ बेफ़िक्र और सोऊँ अब गहरी नींद मैं भी।

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