Ashish Singh Thakur   (आशीष सिंह ठाकुर 'अकेला')
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Joined 4 December 2019


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9 OCT 2021 AT 23:09

You can be timeless, if you don't squander time.

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8 OCT 2021 AT 4:05

वो आँखों में आये, और ख़ाब बन गए,
मैं हूँ ख़ादिम उनका वो जनाब बन गए,

मैं उनकी किस्मत, मेरा नसीब वो हुए,
पर रिश्ते अपने, ख़ाना-ख़राब बन गए ।

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7 OCT 2021 AT 0:26

हमारी ज़िंदगी जो है, रात जैसी है,
मिली हो यूँ किसी को, ख़ैरात जैसी है,

हमीं हम हैं कहानी किस्सों में, लोगों के,
हमारी बात भी और बात जैसी है ।

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21 MAY 2020 AT 15:48

घूंट में पी ली ज़िन्दगी,कुछ कतरे छोड़ दिये,
वक़्त की शाखों पे लगे कुछ लम्हें छोड़ दिये।

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5 APR 2020 AT 22:06

कविता: मिट्टी के दिये

मिट्टी के दिये,मिट्टी से बनकर,
पानी की आत्मसात कर,
ताप में तपकर, कच्चे से पक्के होते हैं,
जब ये मिट्टी चिकनी होती है,
बमुश्किल ही कहीं टिकी होती है,
मगर कुम्हार,
आकर और मक़सद दोनों देता है उन्हें,
मिट्टी के दिये,मिट्टी से बनकर,
मिट्टी में मिलने से पहले,
जग रोशन कर जाते हैं,
हम भी मिट्टी के,मिट्टी से बनकर,
मिट्टी में मिलने से पहले,
क्यों न रोशन करते रहें ये दुनिया,
और मिटा दें नामो-निशाँ अंधेरे का,
हर घर से और हर मन से,
बस जला कर कुछ,
मिट्टी के दिये!!!

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2 APR 2020 AT 15:05

ग़ज़ल: आदत सी हो जाती है।
धीरे धीरे आदत सी हो जाती है,
तब पीड़ा भी राहत सी हो जाती है,
ना मिल पाये,ना हासिल हो तो फिर ये,
मोहब्बत भी आफ़त सी हो जाती है,
ग़म खाते हैं हम, आँसू पीते हैं, हम,
परिशानी तक दावत सी हो जाती है,
दिन है मुश्किल, रातें करवट लेते हैं,
तन्हाई से चाहत सी हो जाती है,
मिलते हैं बहुतायत ग़म ओ रुसवाई,
मोहब्बत में बरकत सी हो जाती है।

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1 APR 2020 AT 13:50

देखूं तो मंज़र हो जाता है,
बोऊँ तो बंजर हो जाता है,
खूँ से सन जाते हैं ये अरमाँ,
छू लूँ तो खंज़र हो जाता है ।

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1 APR 2020 AT 1:08

तुम क्या जानो हाल हमारा,
कैसे बीता साल हमारा ।

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1 APR 2020 AT 0:38

दिन फूलों के बीत रहे हैं,तितली के मनमीत रहे हैं,
तन पे उनके शीत रहे हैं,शबनम से यूँ प्रीत रहे हैं,
दिन फूलों के बीत रहे हैं।

भौंरें जो प्रतीत रहे हैं,गुल के रस से रीत रहे हैं,
चुंबन से दिल जीत रहे हैं,बागों के अभिजीत रहे हैं,
दिन फूलों के बीत रहे हैं।

राधा के नवनीत रहे हैं,शायर के संगीत रहे हैं,
हर होंठो के गीत रहे हैं,कागज़ पे अनुनीत रहे हैं,
दिन फूलों के बीत रहे हैं।


मौसम भी विपरीत रहे हैं,जग से इनको भीत रहे हैं।
ऐसे क्या जगरीत रहे हैं,पतझड़ से भयभीत रहे हैं।
दिन फूलों के बीत रहे हैं।

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1 APR 2020 AT 0:27

दिन फूलों के बीत रहे हैं,तितली के मनमीत रहे हैं,
तन पे उनके शीत रहे हैं,शबनम से यूँ प्रीत रहे हैं, दिन फूलों के बीत रहे हैं।

भौंरें जो प्रतीत रहे हैं,गुल के रस से रीत रहे हैं,
चुंबन से दिल जीत रहे हैं,बागों के अभिजीत रहे हैं, दिन फूलों के बीत रहे हैं।

राधा के नवनीत रहे हैं,शायर के संगीत रहे हैं,
हर होंठो के गीत रहे हैं,कागज़ पे अनुनीत रहे हैं,
दिन फूलों के बीत रहे हैं।

मौसम भी विपरीत रहे हैं,जग से इनको भीत रहे हैं,
ऐसे क्या जगरीत रहे हैं,पतझड़ से भयभीत रहे हैं।
दिन फूलों के बीत रहे हैं।

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