Ashish Saurav   (सौरभ)
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कुछ कही कुछ अनकही
Joined 30 March 2019


कुछ कही कुछ अनकही
Joined 30 March 2019
6 MAR 2024 AT 14:25

सानेहा ये भी मुझपे गुज़र क्यों नहीं जाता
अब जिंदा नहीं जो मैं तो फिर मर क्यों नहीं जाता

ले जाती है दर बदर जाने वो किसकी जुस्तजू है
गर थक गया हूं वाकई तो ठहर क्यों नहीं जाता

उस परिंद का नशेमन तो अब तक है शायद बचा
कोई बतलाये उसे की वो अपने घर क्यों नहीं जाता

वो जो कहते हैं हर वक़्त हर जगह ही है मौजूद
अगर है वाकई तो मुझे नजर क्यों नहीं आता

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3 NOV 2022 AT 14:23

मेरे शब्दों को तुमने सुना
पर क्या उन शब्दों के पीछे जो शब्द थे
उन्हें भी सुना?
वो जो कुछ विराम पड़े थे बीच में
उन्हें एक-एक कर चुना?
और जो सबके पीछे चुपचाप पड़ा हुआ मौन था
उसे भी पहचाना ना?

मैं वही मौन हूं ||

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29 OCT 2022 AT 18:57

मुझे

मुझे पता है
मुझे पता नहीं

पता है कि पता है
पता है कि पता नहीं
नहीं पता कि पता है
नहीं पता कि पता नहीं

नहीं पता कि क्या पता भी है
नहीं पता कि क्या पता भी नहीं

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31 DEC 2021 AT 8:06

जिन मंजिलों के रास्ते खो गये
चलो ना उन्हें ढूँढ़ा जाये
झांके खुद से खुद के भीतर
यूं नया साल मनाया जाए

जिन दरख़्तों पर अब पत्ते नहीं आते
उनसे कैसी शिकायतें
उन दरख़्तों पर अबकी आओ
कुछ फूल सजाया जाये

ये साल भी गया हर साल की तरह
गर जहन को बात ये सताती हो
तो लो धूप हसी की, आंखों से पानी
एक सब्ज़ साल उगाया जाये

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16 DEC 2021 AT 19:04

जो खोया ही नहीं कभी
उसको पाऊं कैसे
मुझमें ही जो हो समाया
उस तक जाऊं कैसे

पृथक ना जो कभी रहा
फिर भी लागे दूर
मेरा पी ना रूठे मुझसे
उसे मनाऊँ कैसे

माया मकड़ी में उलझी
आंखें उसको ढूंढ रही
मैं तो 'सौरभ' समझ गया
"मैं" को समझाऊँ कैसे

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14 DEC 2021 AT 9:47

जो दर्द है वो दर्द है, हमसे ना सुनाया जाएगा
जो रूठे हो तुम अबकी, हमसे ना मनाया जाएगा

ये नदामतें ये शिकायतें ये रंजिशें ये हिदायतें
तुम बना लो हों बातें जितनी, हमसे ना बनाया जाएगा

जी भरकर रुलाओ मुझे, तुम्हें उतना तो हक है
जो रोये तुम साथ मेरे, हमसे ना हँसाया जाएगा

ये शर्तें प्यार में, ये खेल जीत-हार का
अब चाहो जितना सता लो, हमसे ना सताया जाएगा

ये नाज़ तुम्हारे मैंने जो हैं सर पे उठा रखे
दिल भर चला की ये बोझ हमसे ना उठाया जाएगा

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10 OCT 2021 AT 14:54

ये जो खुद से हैं शिकायतें
वो तो चलो खुद से हैं...
वो जो तुमसे हैं शिकायतें
वो भी तो खुद ही से हैं ।

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2 OCT 2021 AT 11:36

माज़ी की जुस्तुजू में कैसे दिन गुज़र गये
राहें निकलीं कहां और हम पीछे ठहर गये

दिल ए नाशाद को क्यों है अब तक उम्मीदें
ना-उम्मीदी में जाने कितने ही सहर गये

दिल को समझाया है जाने कितने दफ़े
कितने दफ़े और हम इस दिल से मुकर गये

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5 SEP 2021 AT 11:09

यादों के आंगन में पड़े हुए
धूप से बैठक की
नीले चादर सा कुछ ओढ़े हुए
दिन बगल से गुज़रा

तारों की बिंदी से सजी रात से पहले
गुमसुम चांद लिए गुमसुम शाम आयी थी
मैं उसी आंगन में पड़ा हूं शायद अब तक

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4 SEP 2021 AT 13:45

A void within
Drains
Leaks
Drip by drip
The void within
Stays
Floats
Like a meaningless crib
Void within
Enticing, Repelling
Unpained
As if a beat skipped

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