टूटेगा भरम सारा, आहिस्ता -आहिस्ता |
कट ही जायेगा सफर जीवन का, आहिस्ता-आहिस्ता |
समय, सांसे और जिंदगी एक जैसे ही तो है,
सब चल रहे हैं अपने पथ पर, आहिस्ता-आहिस्ता |
कहीं रुक जाना ही लक्ष्य तो नहीं? जिसे पाने के लिए चल रहे हैं आहिस्ता-आहिस्ता |
एक दिन सब कुछ ठहर सा जायेगा, शायद लक्ष्य मिल गया हो |
और हम उस ओर बढ़ रहे हैं आहिस्ता-आहिस्ता|-
आँखों ने आँखों से सौ सवाल कर गया |
अंतर्मन के धुन पर मचलना सीख रहा हूँ मै |
वक़्त के हिसाब से बदलना सीख रहा हूँ मै |
एक अरसा गुजारा है भीड़ में मैंने |
बदलते दौड़ में तन्हा चलना सीख रहा हूँ मै |-
हवा को हवा से बैर है,
दर्द को दवा से बैर है |
नफ़रत ने कुछ इस कदर निगला है रिश्तों के मर्यादा को,
भाई को भाई से,
पुत्र को पिता से बैर है |-
पानी को खूब साफ वो फ़िल्टर में कर लिया |
पंखे का स्विच ऑन वो विंटर में कर दिया |
वादा उसे लैपटॉप का निभाना पड़ेगा....2
12 वी के बाद दाखिला इंटर में कर लिया |
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मै उसे आफ़ताब और वो मुझे नमूना समझती है |
मेरी मुहब्बत मुझे अकेलापन का खिलौना समझती है |
आता उसे बेहद प्यार मुझपे जब वो उदास हो |
रत्ती भर भी स्मरण नहीं रहता जब वो अपनों के साथ हो |
मै सोचता वो खुद को चंदा और मुझे चकोर समझती है |
वहम है ये मेरा, क्योंकि वो मुझे कुछ और समझती है |
बज सकूँ मनोरंजन के लिए ऐसा झुनझुना समझती है |
मेरी मुहब्बत मुझे अकेलापन का खिलौना समझती है |-
न शिकवा न शिकायत है किसी से |
अब खुद ज़ख्म कुरेद कर खुद ही मरहम लगाता हूँ |
चाहूँ तो तैर जाऊँ दरिया को |
मगर चुल्लू भर पानी में डूब जाता हूँ |
और क्यों न चक्षु भिगो दूँ खाड़े पानी से |
जिन राहों में पुष्प बिछाया था वहाँ काँटों का साथ पाता हूँ |-
तिनका-तिनका में बिखरने लगा हूँ |
खिला चमन था कभी अब उजड़ने लगा हूँ |
उसे लगता है,मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता उसके जाने से |
अब कैसे समझाऊं की किन राहों से मै गुजरने लगा हूँ |-
पूजा के लिए प्रसाद, दीया और बाती ख़रीदा ||
मौसम का कहर तो देखिए,
मैंने कंबल के सीजन में बरसाती ख़रीदा ||-
कभी-कभी अच्छा लगता है बहाव के संग बह जाना |
बहुत प्यारा लगता है अपना सा हो जाना |
यूँ तो हर बात पर अपना तर्क लगाता हूँ |
पर कभी कभी धारा के संग बह जाता हूँ |
माँ जब कहती की पत्थर में भगवान होते हैं |
दिल कहता है, कौन कहता की पत्थर दिल इंसान होते हैं |
फिर भूल जाता हूँ बातों का बाण चालान |
कभी-कभी अच्छा लगता है बहाव के संग बह जाना |
किसी के मुस्कान की ग़र जज्बात कहूँ |
क्या गलत है दिन को ग़र रात कहूँ |
बहुमूल्य होता है कुछ पल मुस्कुराना |
कभी-कभी अच्छा लगता है बहाव के संग बह जाना |-
मुक़द्दर मुकड़ गई तो क्या हुआ |
आशियाना बिखर गया तो क्या हुआ |
सजोयेंगे तिनका-तिनका उम्मीदों का |
ख़्वाब उजड़ गया तो क्या हुआ |-