ज़रा और कुछ देर।
वादा उम्रभर का था ना, दो पल साथ बिता ना, ज़रा और कुछ देर,
कड़कपत्ती अदरक डाल, इश्क़ की चाय उबाल, ज़रा और कुछ देर।
रात तुझसे लिपट आँखें मूँदें, हसीन ख़्वाबों की आह! वो बूंदें,
बस तू दूजी तरफ़ पलट, ना सुबह को करवट, ज़रा और कुछ देर।
जिरह से कब हुआ है हल, किसी इल्ज़ाम के रास्ते में दख़ल,
एक सदी लड़ लेंगे यार, इश्क़ हैना? कर इंतज़ार, ज़रा और कुछ देर।
बाशौक़ कर ले तू ख़त्म तमाम, अपने सारे फज़ूल के काम,
चलाले "वक़्त है कहाँ", का जाली मुक़दमा यहाँ, ज़रा और कुछ देर।
हैं तैयार आख़िर तक हम, फिर क्यूँ तेरी आँखों में है भरम,
ज़ुबाँ न कह सकी बख़ूब, ग़ज़ल वो कह रही महबूब, ज़रा और कुछ देर।।
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कभी रोज़-मर्रा के किस्से लिखे, और ब... read more
लो कर दिया ऐलान
बावक़्त उमर गुज़रती थी पहले भी पर इस क़दर कटती ना थी,
हमारी बात तो बढ़ती थी पहले भी पर इस क़दर बनती ना थी।
सँवारती गेसू कभी छत पे, उनके क़दमों का झटपट आना,
साँस तो उनकी चढ़ती थी पहले भी पर इस क़दर थमती ना थी।
वो तेज़ हवा का रुबाब, मेरे दुपट्टे का आँचल से ढलकना,
हालत उनकी नाज़ुक थी पहले भी पर इस क़दर बिगड़ी ना थी।
चोरी पकड़ी निग़ाहों की, जो एकटक इस चेहरे को तकना,
नज़र उनकी मिलती थी पहले भी पर इस क़दर झुकती ना थी।
रूठें छाये उदासी वो भर लें बाहों में उफ़न जाए ज़माना,
बाज़ुओं में मैं सिमटी थी पहले भी पर इस क़दर पिघली ना थी।
छेड़ें तो इतराना, ज़्यादा मख़ौल बने तो आँखें दिखाना,
उनसे इश्क़ तो मैं करती थी पहले भी पर इस क़दर मरती ना थी।-
कुछ भी खाने को तत्पर, लार टपकाने में ना कोई कटौती की है,
अपनी दीदी की लोकप्रियता को इन्होंने बहुत कम देर में चुनौती दी है|
ना ज़्यादा हंसते, ना रोते, थोड़े गम्भीर स्वभाव के लगते हैं,
दिन भर खेल कूद के सो जाते और फिर रात भर जगते हैं।
इनके छोटे छोटे कंधों पे अब बड़ी जिम्मेदारी का भार है,
समझदार दीदी के रूप में मिला एक निजी सलाहकार है,
एक वर्ष के हो गये हैं, पहला जन्मदिन बहुत मंगलमय हो,
बहुत नाम रौशन करें पूरे कुल का, युवराज की जय हो |
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सर्द रातों के इम्तिहाँ
ख़त्म काश ऐसे करते ताल्लुक़, हम्में तेरा ना एक ज़र्रा बकाया होता,
पर दीवाने बन के रह गये तेरे, ख़ुद का कुछ तो ज़रा बचाया होता।
न मिला तू जो तो घुट-घुटके काट रहे हैं ज़िन्दगी,
अग़र मिल गया होता ना जाने कैसा तूफ़ान-ए-तबाह आया होता।
अब जागते देर रात तलक अफ़सोस मनाते फ़िरते हैं,
क़ाश हमने उस रोज़ हथेली पे नाम लिखके फिर ना कभी मिटाया होता।
बिन तेरे बोझ हुई साँसें, तेरे न मिलने की शर्मिंदगी,
"हम भी तो न मिले तुझे" किसी ने ताने देके एहसास ये कराया होता।
बइत्मिनान थे के बस तड़पती रातों के इम्तिहाँ हैं,
सर्दियों में कमबख़्त दिनों के छोटे होने का इल्म तो कराया होता।
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जब से है मुझे अपनी मोहब्बत का एहसास,
तब से ये मेरी दो ही ख्वाहिशें हैं बड़ी ख़ास,
के ना रहूँ तन्हा, मेरे हर वक़्त में तू साथ रहे,
और तेरा सारा वक़्त गुज़रे तो बस मेरे पास।
रितु और श्रेया को मैंने देखा है कई बार,
तुम्हे कुछ अलग से देखते हुए लगातार,
पहले था कोई नहीं अब जब तराश लिया है,
तो इस पत्थर को पाने, लगे हैं सब लम्बी कतार।
ऐसे तो नहीं जलती मैं कभी किसी और से,
किसीके तेरे साथ हँसी-मज़ाक के शोर से,
बस कभी-कभी ही यूँ ही जी कर जाता है,
मुँह नोंच लूँ उस कमीनी का बड़ी ज़ोर से।
जब गुम हूँ फिर मैं रात की नर्म सलवटों में,
तेरी इन बाहों को ही ओढ़के सोऊँ करवटों में,
तेरे होंठ क़रीब हों मेरे होंठों के, जब आँखें खोलूँ,
और तेरी उँगलियाँ क़ैद रहें मेरी उलझी लटों में।-
नफ़रत ज़हन में रहे, पर ख़्याल-ए-सूरत पे आह न हो,
कैसे रख पायें भला, ये दो तलवार एक म्यानी में।-
न भूलता आसमाँ कभी,
मिल्कियत परवाज़ की,
गैरमौजूदगी हो बाज़ की,
तो बस कौवे उछलते हैं।
- आशीष कंचन
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जंगल
सारी दुनिया है जंगल, खाने की होड़ में मगन,
शेर करे शिकार अगर, तो सौ गीदड़ पलते हैं।
पैने काँटों में छुपके, ज़हरीले डंक बिच्छू के,
गुलदस्ते लिए ग़ुलाब के, सब मुस्कुराके मिलते हैं।
निगाहें चौकन्नी कर, रख ली हैं बाहें मोड़कर,
लम्बी आस्तीनों में अक़्सर, छुपकर साँप डसते हैं।
दौड़ते कछुओं के सूबे, डुबाने के लिए मंसूबे,
पानी में मगर मगर कब डूबे, बेकार ही मचलते हैं।
न भूलता आसमाँ कभी, मलकियत परवाज़ की,
बस गैरमौजूदगी हो बाज़ की, तो कौवे उछलते हैं।-
है मेरा.....सब कुछ बस तू नहीं
छीन ले मेरे ख़ुदा मुझसे ज़मीं सारी पर दे दे जो फ़लक़ है मेरा,
है बड़ी मुश्किलों में दरिया-ए-इश्क़, सबर न जाने कब तक है मेरा।
कब कैसे गलत करार हुआ मोहब्बत में टूट के चाहना,
तू समझना समझ ले ग़ुनहगार ये महज़ मज़ाक नहीं इशक़ है मेरा।
न बिसात उस इश्क़ की जिसमें ना कर सकें उसकी वफ़ा पर यकीं,
है तय अब मुझे ही ले डूबेगा, इतना ख़ुदग़र्ज़ ये शक़ है मेरा।
दस्तक़ दे किराये के लिए, हर पहली तारीख़ दहलीज़ पे दर्द,
वहम ही था के तेरी इन यादों पे तो कम से कम कुछ हक़ है मेरा।
मत कर देर या तू पहले बाहें फैला के मुझे गले से लगा,
फैसला या ले जकड़ के दोनों हाथों से घोंट दे जो हलक़ है मेरा।
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कुछ देर बारिश का मौसम सा हुआ है आज,
हल्की ठंडी है हवा तो और खुश भी है मिज़ाज,
कड़क इस्त्री हुए तने सुफ़ेद कुरते को निकाल,
हम निकले कंघी फिराके, जो बचे हैं पाँच बाल,
ऊपर आसमाँ में बादलों की थी क्या ख़ूब बनावट,
हरे-भरे बाग़ में चिड़ियों की चकचक चहचहाहट,
सैर में कई ख़्याल लिए, सरपट चल पड़े क़दम,
कल की याद आगे-आगे और उसके पीछे हम,
ईंटों के थे रास्ते, कहीं थी कच्ची मिट्टी की डगर,
बादलों ने ज़रा मुँह भी खोला, हम चलते रहे मगर,
पूरा मुआयना करके हम मुस्कुराये बैठे पेड़ के पास में,
अंदर ही निकला तेरे, तू घूमता फिरे बाहर सुकून की तलाश में।
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