जान निकाल लेती हो ज़िंदगी,
कितनी बेदर्द हो तुम..
सफर अरमानों के पैर शुरू करवाती हो
फिर अरमानो को ही मार कर
वीराने में छोड़ जाती हो।
हर बार मर कर जीना सिखाती हो तुम
जिंदगी कितनी बेदर्द हो तुम..
कुछ सपने इधर, कुछ सपने उधर दिखाती हो,
कई बार हसी तो कभी गीत दिलाती हो,
खुशियां दिलवाकर कैसे छीन लेती हो तुम,
जहां थे हम खाली हाथ, वहां कैसे छोड़ देती हो तुम।
दिल के जो होते सबसे नजदीक,
उन्हे कैसे अनजान बना देती हो तुम,
खिलौना समझ कर कैसे खेल जाती हो तुम,
ज़िन्दगी, कितनी बेदर्द हो तुम..
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