सुबह के आते ही गर्म धूप आंखें तरेर गई
धरा के सीने पे कितनी ही दरारें उकेर गई
इससे पहले कि रंग उड़ जाता लहू का मेरे
फाल्गुनी शाम जो उतरी तो रंग बिखेर गई-
कतरा कतरा दिन बीता
सरक सरक कर रात
ज़र्रा ज़र्रा ढली ज़िन्दगी
रेज़ा रेज़ा जज्बात-
मौन की परिभाषा बताओ
अव्यक्त में कुछ व्यक्त सा
और मुखर में शब्द होता है
किसी गहरे सन्नाटे के जैसा
कशमकश में बीत गया पल
किस के सिर पर बोझ धरें
इन पथराये पलों में हम
बात करें तो किससे करें-
ये जो मुख्तसर सी है मेरी ज़िंदगी
तेरे इश्क में
यूं लग रहा जैसे फैला आसमान है
तेरी मस्त नज़र और ये तेरा बांकपन
एक प्यास सी
दीवाने दिल की चाहतों में शुमार है-
दास्तान दिल की जान जाते तो अच्छा होता
हमने मुद्दत से तुम्हें इक ख्वाब में संजोया है
ये हकीकत भी पहचान जाते तो अच्छा होता-
एक ख्वाब तुम्हारी आंखों का
जब मेरी आंखों का नूर बना
तब चाहत की अमरबेल चढ़ी
दिल के सूखे जंगल में
पत्ते निकले, कलियाँ चटकी
कुछ सोज रंग इतराये यूं ही
खुश्बू बिखरी, लहकी डाली
रोशन हो गया एक पल में
-
इन्तज़ार अब भी है तुम्हारा मगर प्यार नहीं
सुकून बहुत है इस दिल को, बेक़रार नहीं
ग़म से पस्त हैं और हाल भी बेहाल सा है
गनीमत तो यही है फिर भी मैं लाचार नहीं
छेड़ देता मेरे जख्म अक्सर वो आते-जाते
जानता वो भी है चींटियों की ये कतार नहीं
वक्त का चाक मिटा देता है 'आशु' सूरत
सनम की ख्वाहिश है इससे तो इन्कार नहीं-