रूठे रूठे लफ़्ज़ ये मेरे रूठे हुए है कलम हमारे,
इसलिए तो रफ़्तार धीमे होते गए हैं रक़म हमारे।
कुछ सीखा था और कुछ शौक़ मगर अफ़सोस,
एक एक करके टूटते ही गए हैं सारे भरम हमारे।
अपने दर्द का साझेदार ढूंढने तो चला था मगर,
यहाँ पे कुछ काम ना आ सके हैं ये करम हमारे।
चाहे नशा किसी का हो असर किया है तभी तो,
भरी जवानी में ही लड़खड़ाने लगे हैं कदम हमारे।
सलीका तो छोड़ो मैं तरीके से भी नहीं लिखता,
इसलिए तो आज भी पढ़ने वाले है कम हमारे।
अब इस चार दिवारी से चार कंधों पर ही निकले 'असद',
साहेब वो रब ही जाने की कब होंगे अगले जनम हमारे।-
अगर आया हूं तो कुछ न कुछ बेहतर करके जाऊं... read more
जब गम की हो तलाश,तो मुझे याद करना
जब कोई ना रहे पास तो मुझे याद करना
मैं दर्द की दवा नहीं जख्म का ठिकाना हुं
मेरा चांद उदास है,आज मुझे याद करना
पैरों की छालों से पूछो,राहों की मुश्किलें
मुश्किल में हो गर सांस तो मुझे याद करना
बच के रहना हवाओं से,उड़ा ना ले खुशबू
बिखरे जो गर एहसास तो मुझे याद करना
इंतजार के इस धूप में मुरझा गए गुलाब
होंठो को लगे गर प्यास तो मुझे याद करना-
ग़ज़ल: "दिल के हज़ार टुकड़े"
कितनी कहानियाँ हैं, कितनी यादें भी साथ हैं,
हर एक मोड़ पर कुछ रूहानी जज़्बात हैं।
दिल तो है एक मगर इसके हज़ार हिस्से है,
हर हिस्से में दबे हुए कुछ अनकहे जज़्बात हैं।
किसी कोने में बचपन की मीठी सी धूप है,
कहीं शाम सी तन्हा, उदासी की बरसात हैं।
एक पर्दे के पीछे वो पहली मोहब्बतें,
और इक परत में टूटी हुई सौगात हैं।
कुछ लोग थे जो दिल में सदा के लिए बस गए,
कुछ आए और गए, जैसे मौसम की बात हैं।
कभी सन्नाटा बोलता है बहुत गहरे से,
कभी यादों की गूंजती हुई बारात हैं।
माँ की लोरी भी यहाँ अब तलक महफ़ूज़ है,
और बाबुल की सीख भी ज़िंदा हयात हैं।
कहीं अधूरी ख्वाहिशें हैं, कहीं मुकम्मल ख्वाब,
हर टुकड़े में उलझे हुए मेरे हालात हैं।
कुछ लम्हें हैं जो वक्त से आगे निकल गए,
कुछ अब भी रुके हुए किसी जज़्बे की बात हैं।
ज़ख्म भी हैं इसमें और मरहम भी साथ है,
दिल के हर हिस्से में अलग सी बात हैं।
'असद' ये है के इन टुकड़ों को फिर जोड़ सकूँ,
मगर अब दिल की हर दीवार में दरारें बरक़रार हैं।-
आधी रात में आंसू निकलने लगे तुम्हारी याद में,
दिल भीग गया उन ख्वाबों में,जो थे बस इबादत की बात में।
छोटे-छोटे शहर की गलियों में, कुछ तेरे क़दमों की ख़ुशबू थी,
हर बारिश में याद आते हो, और धड़कनें भी थीं तजुर्बात में।
सन्नाटों की बस्ती में, जब तेरी हँसी की गूंज आई,
फिर टूट गई नींद मेरी, उस प्यारी सी आवाज़ में।
वो चाय की दुकान, वो बेमतलब की बातें याद आईं,
हर मोड़ पे तेरा ज़िक्र था, मेरी हर एक सौगात में।
अब हर रात की तन्हाई, तुझसे एक सवाल करती है,
क्या तू भी कभी रोया था 'असद', मेरे जैसे हालात में?-
साहिल पे इक हसीं साया ठहर गया,
काले लिबास में चाँद जैसे उतर गया।
रेशमी साड़ी में खामोशी की बात थी,
हर लम्हा एक नए जज़्बे में ढल गया।
बालों में लहर थी, समंदर की याद थी,
आँखों से इश्क़ का मौसम बदल गया।
तुझे नजर न लगे,इस बुरे जमाने की
तुझे देखकर मेरा भी वक़्त रुक गया।
रेत पर चलती रही बिना आवाज़ के,
हर क़दम जैसे कोई नग़्मा बन गया।
तूफ़ानों को भी उसने सादगी से रोका,
ऐसी नज़ाकत से दिल मेरा भर गया।-
कभी ज़िंदगी के भरम नहीं, कभी दर्द में भी करम नहीं।
ये जो हँस रहे हैं महफ़िल में, इन्हें दिल की कोई कसम नहीं।
वो जो रहगुज़र में थे साथ कल, उन्हें आज कोई सनम नहीं,
जो बिछड़ गए थे सफ़र में यूँ, उन्हें लौटने का भरम नहीं।
जो लफ़्ज़ थे तेरे प्यार के, वो सज़दे थे या ज़हर थे 'असद'
तेरे बाद किसी से उलझ पड़े, मगर दिल किसी से भी कम नहीं।
तेरे नाम से जो दुआ मिली, वो सजदा बना था ख्वाब का,
अब उस ख़ुदा से भी कह दिया, हमें और कोई करम नहीं।
हम आईने से भी डर गए, कि कहीं चेहरा बदल न दे,
हमारी तरह का यहाँ कोई, किसी को भी शायद सनम नहीं।-
तीन मई की शाम थी चुप, दिल में कोई आह सी थी,
तन्हा सड़कों पर मोहब्बत तेरे नाम की गवाह सी थी।
काग़ज़ पे लिखा था तेरा नाम, और हवा ने पढ़ लिया,
हर बारिश पर याद आते हो, दिल में कोई पनाह सी थी।
वो लम्हा जो तूने देखा था, फिर कभी वापस ना आया,
उस दिन हर सांस अधूरी, हर बात में एक चाह सी थी।
कहाँ ग़लती थी किससे, ये हिसाब अब तक बाक़ी है,
तेरे जाने की वज़ह में भी इक मेरी ही राह सी थी।
बिछड़ के भी तू मुझमें ज़िंदा है, ये कैसा खेल है खुदा,
तेरे बिन हर दिन वीराना, तीन मई तो सज़ा सी थी।
अब उस तारीख़ को देखूं तो, दिल धड़कने कम लगता है,
वो दिन मोहब्बत था मेरा, और मोहब्बत मेरी गुमराह सी थी।-
वो दुश्मनी बढ़ा के अब गुलाब मांगने लगे,
उलझ के खुद ही तिश्नगी से आब मांगने लगे,,
अजीब लोग है यहां, जरा अदब क्या मिला,
उठा के सर, खुदा का ही ख़िताब मांगने लगे,,
ये मैं कहां पे आ गया हूं फरिश्तों के शहर में,
सभी मेरे गुनाह का हिसाब मांगने लगे,,
यूं मत सता या रब इसे ये तो तेरा मुरीद है,,
एसा न हो ये भी कहीं शराब मांगने लगे,,-
बादशाह था कभी, सब कुछ तोड़ आया हूं,
महलों की भीड़ में खुद को छोड़ आया हूं।
रिश्तों की आग में सब कुछ जला दिया,
मोहब्बतों का जनाज़ा मोड़ आया हूं।
सजदे में था जहां, वो अब ना रहा मेरा,
सच पूछिए तो आईना भी तोड़ आया हूं।
अब दिल को आरज़ू महलों की क्यों रहे,
जब घर की मिट्टी में साँसें जोड़ आया हूं।-
माँ-बाप ने तो नाम दिया था, अफ़साना मैं खुद बना आया,
तूफ़ानों से खेला हूँ खुलकर, वीराना मैं खुद बना आया।
मेहनत की हर सीढ़ी पर मैं, ज़ख़्मों के दीप जलाता था,
हर चीख़ को चुप करवाकर, तराना मैं खुद बना आया।
जो हँसते थे गिरने पर मेरे, अब भीड़ में पीछे दिखते हैं,
मैं जला हुआ अल्फ़ाज़ नहीं, परवाना मैं खुद बना आया।
धोखा, ग़रीबी, तन्हाई—सब, मेरे उस्ताद रहे उम्र भर,
इनसे जो कुछ भी सीखा है, फ़साना मैं खुद बना आया।
कब्रों से भी लौटी है हिम्मत, जब मौत ने आँख मिलाई है,
मैं आग हूँ, राख नहीं कोई—ये ठाना, मैं खुद बना आया।
अब 'असद' को न आँक सकोगे, हर साज़ पे चोट बजाई है,
जिस दिन मैं खामोश हुआ, समझो जमाना मैं खुद बना आया।-