Arvind "Ashk"   (Ashk)
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Joined 1 April 2018


Joined 1 April 2018
23 HOURS AGO

फिर कल रात,रास्ता रात भर देखा
इंतजार में नींद के,होते सहर देखा

आई मुसीबत कोई,जानिब मेरे जब
माँ की दुआओं का,तब असर देखा

हटाया जो पर्दा,बेशर्म हवा ने यारों
देखना तो,न था उसे,हाँ मगर देखा

रो पड़ी रुह,पिता की,उसलम्हे जब
विदा बेटी को कर,खाली घर देखा

तलाशी जिन्दगी जिनमें,ताउम्र मैनें
बारहा,उन निगाहों का,कहर देखा

देखे क्या वो नजारे,जिसने उजड़ते
ऐ "अश्क",उम्मीदों का,शहर देखा

अरविन्द "अश्क"

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5 OCT AT 20:51

फासले,दरमियान हमारे,दराज हो जाएँगे
सच बोल तो लूँ मैं,लोग नाराज हो जाएँगे

जियेंगे जो तन्हा ही,आज के दौर में यारों
लोग वो यकीनन,बदमिजाज हो जाएँगे

खुल जाए अगर लब,करने शिकायत मेरे
थे हबीब जो कल,रकीब आज हो जाएँगे

रहेगी न लज्जत, जिन्दगी में, फिर कोई
ऐ दोस्त अगर बयाँ,सारे राज हो जाएँगे

हो जाए एहसास,गुनाहों का,अपने जिन्हें
इंसान वो,काबिल -ए- नियाज हो जाएँगे

रहेंगे ना,जो साये में,बुज़ुर्गों के ऐ "अश्क"
देखना बच्चे वो सारे,बेलिहाज हो जाएँगे

अरविन्द "अश्क"

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21 SEP AT 19:45

हो के रोज रोज की झिक झिक से परेशान
किया यमराज का हमने एक रात आव्हान
लगाई दो चार बार गुहार और वो आ गए
और देखते ही उन्हें हम तो चक्कर खा गए
कुछ देर तो न पलकें झपकी ना हिले होंठ
होने लगी आतुर भीगने को हमारी लंगोट
हाथ जोड़ हो नतमस्तक पूछा हे यमराज
क्या नही था आपके और काम कोई आज
बोले देव मुझे पहली बार किसी ने पुकारा
कैसे करता अस्वीकार निमंत्रण मैं तुम्हारा
तुम तो बस अब अपनी परेशानी बताओ
लो वरदान मुझसे व उस से निजात पाओ
सोचा मैने इस मौके का फायदा उठाओ
मैं बोला पत्नी,के वो बोले साथ आजाओ
किया निवेदन मैने प्रभु परेशानी मिटाईये
है तकलीफ जिस से उसे साथ ले जाईये
यमराज ने तुरंत किया ऐ "अश्क" इंकार
डरकर पत्नी नाम से पकड़ी तेज रफ्तार

अरविन्द "अश्क"




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7 AUG AT 18:31

मैं कौन हूँ और क्या हूँ,जानता हूँ
किसी दिल की दुआ हूँ,जानता हूँ

चाहने वालों के,जख्म-ए-दिल पर
मैं एक कारगर शफा हूँ,जानता हूँ

राह-ए-इश्क पे,कर वफा आखिर
हुआ क्यों कर फना हूँ,जानता हूँ

आता है नजर ताज-ए-अना मगर
कहाँ कहाँ पर झुका हूँ,जानता हूँ

करने को रोशन खाना -ए- जहन
कब कहाँ कैसे जला हूँ,जानता हूँ

आता है शबाब जिसे छू शमा पर
ऐ"अश्क" मैं वो हवा हूँ,जानता हूँ

अरविन्द "अश्क"

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2 AUG AT 16:34

दुःख पी का हर गई देवी
बिन मौसम पीहर गई देवी

ना चिमटा चुम्बन सर पे होगा
ना मिलन बेलन का कमर से होगा
ना करछी चमड़ी करेगी लाल
ना होगी झाड़ू से टाँगे हलाल
मिलेगी टोका टाकी से निजात
कटेंगे सुकून से दिन और रात
काम कुछ ऐसा कर गई देवी
बिन मौसम पीहर गई देवी

गिरहें मन की खोल सकूँगा
ऊँची आवाज में बोल सकूँगा
किच किच से थोड़ी फुर्सत मिलेगी
घर में मेरी ही हुकुमत चलेगी
कलियाँ मन उपवन में खिली
छोटी ही सही आजादी तो मिली
जो छोड़ मुझे पितु घर गई देवी
बिन मौसम पीहर गई देवी

मन पुलकित तन प्रफुल्लित
भय हृदय में रहा न किंचित
हर पल बस अपना होगा
पूरा मन मर्जी का सपना होगा
कुछ दिन अपनी मर्जी चलेगी
मगर ऐ "अश्क" कैसे खर्ची चलेगी
बटुआ लाॅकर में धर गई देवी
बिन मौसम पीहर गई देवी

अरविन्द "अश्क"

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9 JUL AT 20:24

क्यों कर इतना सोचना,बस जीना है जीते जा
क्या किसी से बोलना,बस जीना है जीते जा

जाने वाला सोच चुका,जाने की ही जब यारों
क्या उसे फिर रोकना,बस जीना है जीते जा

रिश्तों की इस बेईमान,तराजू पर हर बार यार
क्यों खुदको ही तोलना,बस जीना है जीते जा

है सुनना ही नापसंद,जिसे रुदादे दिल,उस पर
क्या राजे दिल खोलना,बस जीना है जीते जा

है खेल ये सारा अपने,कर्मों का ही रचा रचाया
क्यों भाग्य को कोसना,बस जीना है जीते जा

हैरान क्यों है देखकर,ऐ "अश्क" ईमाने इंसान
नही है नया तो डोलना,बस जीना है जीते जा

अरविन्द "अश्क"

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9 JUL AT 14:12

चमचों का भी अपना है अलग होता संसार
आगे साहब के लगती बाकी दुनिया बेकार

रखने को जिंदा साहब का झूठा अभिमान
हैं रहन चरणों में रखते अपना स्वाभिमान

तन, मन और धन से हैं होते पूर्ण समर्पित
तब जाकर करते हैं,चमचा उपाधि अर्जित

साहब को भाने वाले ही करते हैं ये कर्म
तलवे चाटना ही होता बस चमचों का धर्म

खुद से बढ़ कर रखते हैं साहब का ध्यान
करते राम नाम से ज्यादा इनका गुणगान

घर को साहब के समझते ये तो चारों धाम
चढ़ा चढ़ा झाड़ चने पे साधते अपना काम

रहता पापों से कमाया साहब का धन सूना
जो होते ना ये चमचे तो कौन लगाता चूना

अरविन्द "अश्क"

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7 JUL AT 14:56

शहर भी हमारा यारों बड़ा विचित्र है
सड़कों का इसकी अजीब चरित्र है
चूकती नही है मजा लेने का मौका
गड्ढों से अपने देती है हर रात धोखा
हो के नाराज हो गई गायब ही कहीं
तो कहीं पे आज तक आई ही नहीं
हैं जहाँ प्रभावी लोगो के घर बहाल
बस वहीं पर रहती है ये मस्त हाल
खाती है कागजों में हरसाल ये माल
फिर भी बनती है हर बार तरणताल
कहीं गंदगी से यूँ कर रखा गठबंधन
के लगता करने स्वच्छ भारत क्रंदन
है इनमें गुण ऐ "अश्क" एक विशेष
बता रही है आगे जो पंक्तियां शेष
विपक्षियों को तो ये नजर आती है
किंतु सत्ताधारी से छुपी रह जाती है

अरविन्द "अश्क"

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26 JUN AT 13:45

लेकर उधार साँसें,चंद मौत से यारों
किस्तों में जी रहा हूँ,ज़िन्दगी अपनी

बादा-ए-गम में,मिला कर जरा-जरा
हर रोज पी रहा हूँ,ज़िन्दगी अपनी

उधड़ी कमीज सी,सिल जाए शायद
ये सोच सी रहा हूँ,ज़िन्दगी अपनी

निभाने को जिम्मेदारियाँ,मेरी यारों
कर खर्च ही रहा हूँ,ज़िन्दगी अपनी

साथ मसर्रतों के,ऐ"अश्क" मुद्दत से
मैं तलाश भी रहा हूँ,ज़िन्दगी अपनी

अरविन्द "अश्क"

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21 JUN AT 20:41

है याद मुझे आज भी
वो शनिवार
जो आया करते थे
था जब परदेश में मैं

निकलता भी न था
आफताब फलक में,और
आ जाता था,फोन
वालिद का मेरे

बस एक ही सवाल
हुआ करता था उनका
के शाम आ रहे हो न आज
और कहते ही मेरे हाँ
आ जाती थी उनकी
आवाज में,खनक सी एक

फिर तमाम दिन दिल में मेरे
रहती थी लगन सी एक
शाम को अपने घर जाने की
साथ वक्त के मगर
बदल गया सब

अब भी आता है
शनिवार मगर अब
ना वो फोन आता है
और ना ही ऐ "अश्क"
बुलाता है घर कोई

अरविन्द "अश्क"

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