मारी लुगाई भी भायाओं,नेम लूगड़ी वाली गाय है
दीखबा मं गजबण पण,लखणा क नमत धाय है
सीधी तो अतरी,क देसूरी की नाळ भी लाज्या मरे
अर बोली की असी मीठी,क सागर भी पाणी भरे
भोळा पणा क आगे तो,लोमड़ी भी खठई न अड़े
देखे भी अतरा प्रेम मुं,क डर अर रांगड़ भी न लड़े
कोई फुफकारती नागण कीनी,रेवे एकदम स्याणी
सुभाव की अतरी शांत,ज्यों ताड़क वन की राणी
मगज की हाव ठण्डी,ज्यान खीरा मुं भरी अंगीठी
रामजी का होगन मने,ह देवी नीमड़ा जतरी मीठी
जीभ की तो असी कोमल,जाणी थोर को डण्डो
भेजो भी रेवे आखो दन,बळती भट्टी जतरो ठण्डो
कोई भड़क्या साण्ड कीनी,भर भर प्रेम बरसावे
रीस तो ऊने,भूखी शेरणी कीनी,आवगी न आवे
करे बातां भी मारा मूं,अतरी मीठी मीठी सगळी
मेलेड़ी ज्यान मूण्डा मं,ऐ"अश्क" लूण की डगळी
अरविन्द "अश्क"
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बस यही तरीका है एक,मिटाने का संतापों को
चुन चुन कर मारो पहले,आस्तीन के साँपों को
हिन्दू विरोधी लोगों का,मिलकर प्रतिकार करो
जो हो खिलाफ सनातन के,उन पर प्रहार करो
करना है तो काम यही,बस किसी प्रकार करो
बाबर की नाजायज, औलादों का संहार करो
धर्मनिरपेक्ष बन जो,छुपा रहे कायरता अपनी
बहुत हुआ अब ना करो,क्षमा उनके पापों को
चुन चुन कर मारो पहले,आस्तीन के साँपों को
खा कर रोटी इस देश की, देश से करते गद्दारी
जनाजा उनका उठवाने की,अब करलो तैयारी
अनवरत जो निभा रहे हैं,राष्ट्र द्रोहियों से यारी
समझो अब तो तुम इन,मक्कारों की मक्कारी
नापाक पाक हो जाएगा,खाक अपने आप ही
एक बार कर दो खतम,इसके अवैध बापों को
चुन चुन कर मारो पहले,आस्तीन के साँपों को
छोड़ धर्म मार्ग जो हिन्दू को,जात पात में बाँटें
काम सारे बाद में चलो,पहले सिर उनका काटें
लालसा में सत्ता की, विधर्मियों के तलवे चाटे
गाल पर उन बेशर्मों के,ताबड़तोड़ लगाएँ चाँटें
मुग़लों की अवांछित,औलादों को याद दिलाओ
भूल गए हैं ऐ "अश्क",ये चेतक की टापों को
चुन चुन कर मारो पहले,आस्तीन के साँपों को
अरविन्द "अश्क"
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श्री मान को मान न मिलता,न मिलती श्रीमती में मति
होती नही कम फिर भी,गृहस्थ जीवन की कभी गति
जागने से सोने तक करते,बस एकदूजे पर दोषारोपण
करते दोनो दावा के होता,है घर में बस उनका शोषण
जिह्वा रुपी तलवार से होते,प्रहार दोनो ओर से मगर
साक्ष्य, उठा इतिहास से देखो,है हारता अन्ततः पति
होती नही कम फिर भी,गृहस्थ जीवन की कभी गति
पति पतली मोमबत्ती,पत्नी जी धधकती सी ज्वाला
अधपकी फसल चने की पति,पत्नी सर्दियों का पाला
है खरबूजे समान पति,श्री मती जी तेज धार कटार
गिरे कोई किसी पर भी,है होनी तो खरबूजे की क्षति
होती नही कम फिर भी,गृहस्थ जीवन की कभी गति
सम्पूर्ण जगत में परिपूर्ण, अपने आप को समझे बस
बरसाती आग क्रोध की कभी,कभी बरसाती प्रेम रस
ब्रह्मरचित रचनाओं में,ऐ"अश्क"है अद्भुत सबसे नारी
है उग्र कभी चण्डी के जैसी,तो कभी सौम्य सुंदर रति
होती नही कम फिर भी गृहस्थ जीवन की कभी गति
अरविन्द "अश्क"
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रंग हर एक ख्वाब में अपने भरती है जिंदगी
साथ वालिद के जब तक गुजरती है जिंदगी
हो पतवार अगर हाथों में वालिद के यारों तो
बेखौफ दरिया-ए-जीस्तमें उतरती है जिंदगी
होता है बुलंद हौसला हो साथ वालिद जब
नातर्स हालातों से भी नहीं डरती है जिंदगी
साये में दरख्त-ए-दस्त-ए-वालिद के रहकर
बिना बहार के भी रोज सँवरती है जिंदगी
चलती है जब तक थाम के हाथ वालिद का
हो कैसा भी मोड़,कहाँ ठहरती है जिंदगी
हो हालात कैसेभी,मगर साथ हो वालिद तो
सामना ऐ "अश्क" डटकर करती है जिंदगी
अरविन्द "अश्क"
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हूँ कशमकश में,देख कर मैं,हैसियत अपनी
हसरत-ए-तिफ्ल करुँ पूरी,या जरुरत अपनी
दिया न साथ कभी,मुकद्दर ने वरना यकीनन
रहती ना अधूरी,ऐ दिल कोई,रगबत अपनी
ले नाम मेरा,है लेता निकाल,जो काम अपना
समझा पाया न उसी को,मैं मुसीबत अपनी
हुआ न बेपर्दा,रुखे मसर्रत,बाद कोशिश भी
आ सकी न कुछ काम,उठाई जहमत अपनी
जाहिर चेहरे से,होने लगे जज्बात दिल के
छिपाऊँ कैसे भला,उससे हकीकत अपनी
समझता भी तो कैसे,आखिर ऐ"अश्क" वो
की बयाँ,खामोश निगाहों से,हसरत अपनी
अरविन्द "अश्क"
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एक छुट्टो सांड
कर रियो हो गली में कांड
राम जाने कां चील्या पाड़ रियो हो
आखी गली मं घूम घूम गलो फाड़ रियो हो
देख उकी ताण टाबर भाग घर गिया
अर सांड सोच्यो लोग आपा ऊं डर गिया
फेर खई उको होसलो बढ़ ग्यो
अर ऊ तो हवा क घोड़े चढ़ ग्यो
जोर जोर मुं ऊ तो सुँसाबा लाग्यो
जितरे दो चार लोगाँ को झुण्ड आग्यो
देख मोतबीरा न सांड यूं उछलबा लाग्यो
ज्यान बांदरी ने कोई बिच्छू खाग्यो
दिखाबा लाग्यो जोर ऊ हला हलार भेंटी
अर पकड़बा न दी बेटो खुद की घेँटी
पण मोट्यार भी लाया हा नरोगा लट्ट
मेल्यो ज्यान ही सांड के ऊ तो हो ग्यो सट्ट
जतरो उछल्यो सांड उतरा ही जूत खायो
समझ ग्यो ऊ भी के अबे ऊँट मगरा हेटे आयो
मोट्यार भी हारा ऊ क जो मार मारी
हुयो इलाज अस्यो के निकल गी हेकड़ी सारी
कर मूंडो फत्या की माँ जिस्यो अठी उठी दौड्यो
पण मं जबरा मोट्यार पाछो न ऊको छोड्यो
घेर चार ही फाड़े मुं भाया घणो ऊने धोयो
सांड भी पग पकड़ हूक हूक र रोयो
खाडी सोगन ऊ अबे न ई पाड़ा म आबा की
जदे जार दी दी ऊ न इजाजत वे जाबा की
मिल्यो ज्यान ही मौको सांड जोर मुं भाग्यो
जोर लगायो अतरो क भागतो भागतो गोबर जाग्यो
देख हालत ई सांड की दूजा सांड भी समझग्या
जाण ग्या वे जूत पड़ेला जो ई पाड़ा मं आग्या
अरविन्द "अश्क़"
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इत्तला करना ऐ क़ज़ा आने से पहले
हैं काम कई करने मुझे जाने से पहले
जरा देना मौका मुस्कुराने का दिलको
अभ्र -ए- दर्द जेहन पर छाने से पहले
देना महकने गुलों को मेरे गुलशन में
ऐ खुदा दौर-ए-ख़िजा लाने से पहले
है दुआ के मिले सुकून दिल को मेरे
आसरा ऐ यार लहद में पाने से पहले
रहना तैयार खातिर नोहा के भी तुम
सोज़-ए-मोहब्बत यारों गाने से पहले
है गुजारिश ऐ खुदा "अश्क" की यही
भरना पेट सबका मेरे खाने से पहले
अरविन्द "अश्क"
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लिया जिस में जन्म विरुद्ध उसी धर्म हुए
हाय नेताजी हमारे किस कदर बेशर्म हुए
खून तो हिन्दू का ही है दौड़ रहा तन में
फिर भी रहा न मान जरा धर्म का मन में
मिलेगी ना माफ़ी इनसे ऐसे कुकर्म हुए
हाय नेताजी हमारे किस कदर बेशर्म हुए
सीमा कमीनेपन की सारी लाँघ गए आज
है कितनी नफ़रत हिंदुत्व से खुला ये राज
खिलाफ सनातन के ही इनके ये कर्म हुए
हाय नेताजी हमारे किस कदर बेशर्म हुए
हिन्दू हैं मगर किया न हिंदुत्व का सत्कार
करवा रहे हैं चाव से साहब रोजा इफ्तार
तलवे विधर्मियों के चाट होंठ भी गर्म हुए
हाय नेताजी हमारे किस कदर बेशर्म हुए
राजनीति के नाम पे कैसी गंदगी करते हैं
स्वार्थ साधने मलेच्छो की बन्दगी करते हैं
ऐ "अश्क" राक्षसों जैसे इनके कर्म हुए
हाय नेताजी हमारे किस कदर बेशर्म हुए
अरविन्द "अश्क"
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था राजनीति के सागर में रहा डोल जिनका जहाज
वो अर्द्ध परिपक्व नेता जी आए बीच सभा में आज
सोच होगा मिला है मौका डूबती लुटिया बचाने का
अपना खोया हुआ पुराना सम्मान फिर से पाने का
लोकलाज के चलते जब मंच ने उनका नाम पुकारा
लगा ऐसे नेताजी को जैसे मिला तिनके का सहारा
बिना एक भी पल गंवाये झट से माईक सम्भाला
कचरा अपने कुटिल मन का सारा बाहर निकाला
फिर बातों ही बातों में अपना गुणगान लगे वो गाने
भूत काल के किये कर्मों को एक एक कर गिनाने
जोश ही जोश में बहकी जुबां से हुआ बखेड़ा बड़ा
तब फिर मंच पर एक पुराना मंझा नेता हुआ खड़ा
इशारों इशारों में समझाता तो बात अलग ही होती
उस क्रूर बड़े नेता ने लेकिन उतार ही डाली धोती
एक एक कर सारे सपनों पर कटार गया चलाता
पंख सत्ता के अरमानों के पल पल गया जलाता
तोड़ दिया शब्द प्रहार से घमण्ड ज्यों तोड़ा पापड़
बिन मारे भी मार दिया एक जबरदस्त झापड़
कथित युवा नेता को वयोवृद्ध नेता ने जो फटकारा
बैठ गया कर मुहँ छोटा सा साथ चमचों के बेचारा
अरविन्द "अश्क"-
सुना है तेरी दहाड़ से कुछ गीदड़ भागे थे
सुना है तेरी ही पुकार से सोये शेर जागे थे
सुना है तेरे ही मुख से तू धर्म ध्वजा धारक है
सुना है तेरे ही मुख से तू ही जनता का तारक है
तो क्यों न फिर से तू अपनी एक दहाड़ सुना दे
जो गीदड़ फिर सर उठा रहे उनको तू भगा दे
सुना है तूने ही किया विधर्मियों का मुँह काला
दूजे चाय पीते रहे तूने पिया विष का प्याला
तेरे छुपे कर्मो से ही दीप सनातन का जला
तेरे ही पुरुषार्थ से हुआ सनातनियों का भला
फिर से खुद को रखवाला तू धर्म का बना दे
जो गीदड़ फिर सर उठा रहे उनको तू भगा दे
सुना है हुआ था काम सारा बस तेरे उजास से
बंद कमरों में किये तेरे जी जोड़ प्रयास से
सुना है के ओढ़ चोला जो थे संगठन का आ गए
तेरी करनी का फल वो कुछ झूठे लोग खा गए
उठ ऐ कर्मवीर फिर खुद को धर्मवीर बना दे
जो गीदड़ फिर सर उठा रहे उनको तू भगा दे
सुना है के तूने ही निशान अधर्म के मिठाए थे
सुन कर गर्जना तेरी ही तो ध्वनि यंत्र हटाए थे
तूने ही तो शहर में मशाल धर्म की जलाई थी
तेरे ही कारण तो जागृति हिन्दुओं में आई थी
धर फिर रौद्र रूप फिर से लगे जो भोपूँ हटा दे
जो गीदड़ फिर सर उठा रहे उनको तू भगा दे
अरविन्द "अश्क"
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