लेकर उधार साँसें,चंद मौत से यारों
किस्तों में जी रहा हूँ,ज़िन्दगी अपनी
बादा-ए-गम में,मिला कर जरा-जरा
हर रोज पी रहा हूँ,ज़िन्दगी अपनी
उधड़ी कमीज सी,सिल जाए शायद
ये सोच सी रहा हूँ,ज़िन्दगी अपनी
निभाने को जिम्मेदारियाँ,मेरी यारों
कर खर्च ही रहा हूँ,ज़िन्दगी अपनी
साथ मसर्रतों के,ऐ"अश्क" मुद्दत से
मैं तलाश भी रहा हूँ,ज़िन्दगी अपनी
अरविन्द "अश्क"-
है याद मुझे आज भी
वो शनिवार
जो आया करते थे
था जब परदेश में मैं
निकलता भी न था
आफताब फलक में,और
आ जाता था,फोन
वालिद का मेरे
बस एक ही सवाल
हुआ करता था उनका
के शाम आ रहे हो न आज
और कहते ही मेरे हाँ
आ जाती थी उनकी
आवाज में,खनक सी एक
फिर तमाम दिन दिल में मेरे
रहती थी लगन सी एक
शाम को अपने घर जाने की
साथ वक्त के मगर
बदल गया सब
अब भी आता है
शनिवार मगर अब
ना वो फोन आता है
और ना ही ऐ "अश्क"
बुलाता है घर कोई
अरविन्द "अश्क"-
खुद की नजरों से,उतर गया होगा
हाथ खाली वो जब,घर गया होगा
उदास देख चेहरा,तिफ्ल का यारों
दिल - ए - वालिद, भर गया होगा
बन तूफान जो,उठा होगा सीने में
दर्द वो आँखों में,उभर गया होगा
लाख मर्तबा दिल ने,जाने से घर
किया होगा मना,मगर गया होगा
हाँ जिस्म तो रहा, जिंदा ही मगर
मन में अपने वो, मर गया होगा
पहुँच कर घर तक,ऐ "अश्क" वो
बाहर दहलीज के,ठहर गया होगा
अरविन्द "अश्क"-
दिल में एक दूजे के लिए,इज्ज़त ना रही
रिश्तों में अब पहले सी,शिद्दत ना रही
आलम-ए-वहशत है,देता दिखाई चारसू
जमीन-ए-वतन मेरी अब,जन्नत ना रही
मिलते तो हैं वो,हर शाम मुझसे लेकिन
गर्मजोशी मुलाकात में,हुई मुद्दत,ना रही
हुआ रुबरु जबसे,हकीकत-ए-जीस्त से
जमीर में मेरे,तब से कोई,इल्लत ना रही
बुला रहे हैं फिर मुझे,महफिल में उनकी
शायद मुझसे अब उन्हें,दिक्कत ना रही
करे दुआ और,इमदाद को,आ जाए रब
इंसान में ऐ "अश्क" वो इफ्फत ना रही
अरविन्द "अश्क"-
बद्जुबान और बदचलन,नेता मत पालो मोदी जी
छोड़ो मोह सत्ता का,इन्हें बाहर निकालो मोदी जी
आतंकी की बहन बता,वीरांगना को करे बदनाम
तो कोई काम श्वानों जैसे,कर रहा है सरेआम
कुकर्मों पर इनके आप,मत पर्दा डालो मोदी जी
छोड़ो मोह सत्ता का,इन्हें बाहर निकालो मोदी जी
कहीं नेता सुत कर रहा,मनरेगा के नाम घोटाला
कहीं हुए खुद नेता बेकाबू,पी के हाला का प्याला
इन कलंकित लोगों से,पिण्ड छुड़ा लो मोदी जी
छोड़ो मोह सत्ता का,इन्हें बाहर निकालो मोदी जी
इधर मूर्खता बाँटने की,सिन्दूर पवित्र द्वार द्वार
है उधर कोई जो दे रहा,जवानों को नकारा करार
इन कुंठित कुल कलंक को,कुए में डालो मोदी जी
छोड़ो मोह सत्ता का,इन्हें बाहर निकालो मोदी जी
बात करो मन की मगर,जनता का भी मन जानो
शब्दों के माध्यम से होते,भीतरघात को पहचानो
कहे "अश्क" ना देर करो,इन्हें संभालो मोदी जी
छोड़ो मोह सत्ता का,इन्हें बाहर निकालो मोदी जी
अरविन्द "अश्क"
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जो मिला हमें है पर्याप्त नही
हुआ स्थगित युद्ध समाप्त नही
फिर कैसी विजय कैसा उत्सव
है मचा हुआ क्यों यह विप्लव
जब हुआ न अभी शत्रु का अंत
क्यों है गर्वित फिर देश का कंत
किस बात का जश्न है मना रहे
क्यों झूठी बिरदावली गा रहे
क्यों ना सत्य बताया जा रहा
है जनता को भरमाया जा रहा
ले कर सेना के शौर्य का नाम
बस साध रहे हैं अपना काम
इकट्ठे तो हुएहैं तिरंगे तले सारे
लग रहे मगर राजनीतिक नारे
छोड़कर ऐ "अश्क"अधूरा रण
दिया जा रहा वीरों पर भाषण
अरविन्द "अश्क"
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उम्मीदें मेरी कभी न टूटने देगी बेटियाँ मेरी
ख़ुर्शीद -ए- नाज न ढलने देगी बेटियाँ मेरी
है बढ़ रहा जो राह-ए-शोहरत पर मुद्दत से
वो काफिला मेरा न थमने देगी बेटियाँ मेरी
करेगी हिफाजत तूफ़ान-ए-इब्तिला से भी
चराग-ए-आरजू न बुझने देगी बेटियाँ मेरी
होगी खड़ी मिला कर कंधों से मेरे कंधे
तन्हा जमाने से न लड़ने देगी बेटियाँ मेरी
करेगी दराज इज्ज़त खानदान की अपने
है यकीं सर मेरा न झुकने देगी बेटियाँ मेरी
आफतों को जानिब मेरी ऐ "अश्क" कभी
एक कदम तक न बढ़ने देगी बेटियाँ मेरी
अरविन्द "अश्क"
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बाद वालिद,बराबर चादर के,होना सीख लिया
समेट कर,घुटनों को अपने,सोना सीख लिया
आते नही आँसू, चिलमने पलक से,बाहर अब
रख तबस्सुम लब पर,दिल में,रोना सीख लिया
रही न फिक्र कोई,जहन में पाने,या न पाने की
जब से मैने यारों,खुद में ही,खोना सीख लिया
दे दिखाई न जहाँ,बरसते अभ्रे चश्म किसी को
लेना काम में,घर का वो ही,कोना सीख लिया
नही परवाह अब कोई,अरमान खाक होने की
बोझ दिल ने,टूटे ख्वाबों का,ढोना सीख लिया
रहते नही दाग,दामने दिल पे,ज़्यादा इन दिनों
ऐ "अश्क" इन्हें,अश्कों से,धोना सीख लिया
अरविन्द "अश्क"
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नजरों में उसकी मेरी वो कीमत ना रही
हाँ वो पहले सी मेरी अहमियत ना रही
मानिन्द - ए - अल्मास हैं कीमती रिश्ते
संभालूँ इन्हें इतनी मेरी हैसियत ना रही
लगाए नकाब कई चेहरे पर मगर यारों
छुपी फितरत की असलियत ना रही
था गुमान मुझे जिसके हमराह होने का
पाक उस शख्स की अब नीयत ना रही
रहने दे कर ना कोशिश जानने की यार
पूछने के काबिल मेरी कैफ़ियत ना रही
आ जाए समझ बातें आज के दौर की
"अश्क"में इतनी भी ज़हनियत ना रही
अरविन्द "अश्क"
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प्रश्न करना सत्ता से,धर्म कवि का होता है
नही किसी एक का,कवि सभी का होता है
है हक हर उस व्यक्ति,का जिसने दिया वोट
पूछे क्यों हुई आखिर,उम्मीद पे उनके चोट
फिर क्यों उठाना,सवाल गलत ठहराते हो
क्यों विरोध सत्ता का,राष्ट्र विरोध बताते हो
क्यों प्रश्न कर्ता दर्जा,देश प्रेमी का खोता है
नही किसी एक का,कवि सभी का होता है
कोसा खूब पिछली,सरकारों को सरकार ने
गिनाई भूलें बहुत,की जो पिछले दरबार ने
अब बताओ आप,आप ने क्या पाप किया
आपने भी तो,जनता को वही संताप दिया
आपके कर्मों से भी तो,हृदय हमारा रोता है
नही किसी एक का,कवि सभी का होता है
चलो माना के होगी,ये नीति कोई विशेष
हस्तक्षेप गैरों का लेकिन,कैसे सहेगा देश
जीत मानते हम जो,खुद हमने बोला होता
स्वयं ऐ "अश्क" फंदा,रिपु का खोला होता
है होती खुशी,जब राजा,शांतिबीज बोता है
नही किसी एक का,कवि सभी का होता है
अरविन्द "अश्क"
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